SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टांगहृदय । . . भ. २५ समान लालरंग का होजाय तब इसे निकाल | अर्थ-नेत्र में बल पहुंचाने के निमित्त कर इसके पत्ते और मृत्तिका हटाकर यंत्र | नस्य, अंजन, तर्पण, पुटपाकादि द्वारा सब द्वारा इसका रस निकालले । इस: रसका | प्रकार से यत्न करना चाहिये । क्योंकि तर्पण की तरह नेत्र में प्रयोग करै । तथा | दृष्टि नष्ट होने से अनेक प्रकार के पदार्थों से इसे स्नेहनपुटपाक में सौ मात्रा तक, लेखन | भरा हुआ जगत केवल एक मात्र अंधकार पुटपाक में दो सौ मात्रा तक, और प्रसादन | रूप धारण कर लेता है। पुटपाक में तीनसौ मात्रा तक, धारण करे । इति श्रीअष्टांगहृदये भाषाटीकायां . स्नेहन और लेखन में कुछ गरम और चतुर्विंशतितमोऽध्यायः। प्रसादन में ठंडा रस प्रयोग कियाजाताहै । पाकान्त में कर्त्तव्यतादि। धूमपोऽते तयोरेव पञ्चविंशतितमोऽध्यायः । योगास्तत्र च तृप्तिवत् ॥ २० ॥ तर्पणं पुटपाकंच नस्यान न योजयेत् । । यावत्यहानि युजीत द्विस्ततो हितभाग्भवेत् | अथाऽतो यंत्रविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः। मालतीमल्लिकापुष्पैद्धाक्षो निवसेनिशि ॥ अर्थ-अब हम यहां से यंत्रविधि नामक अर्थ-स्नेहन और लेखन पुटपाक के | अध्याय की व्याख्या करेंगे । अन्त में स्नेहोक्त कफकी शान्ति के लिये | यंत्रों का स्पष्ट विवरण । धूमपान करै ( प्रसादन के अंतमें न करै ) 'नानाविधानांशल्यानांनानादेशप्रवाधिनाम् जिसतरह तर्पण में सम्यक् योग, हीनयोग आहर्तुमभ्युपायो यस्तयंत्रं यच्च दर्शने १॥ अर्शोभगदरादीनां शस्त्रक्षाराऽनियोजने। और अतियोग के लक्षण होते हैं वैसेही शेषांगपरिरक्षायां तथा वस्त्यादिकर्माण ॥ पुटपाकमें भी होतेहैं। नस्यके अयोग्य मनुष्यको घटिकालाबुशंगचं जांबवोष्ठादिकानि च । तर्पण और पुटपाक भी न देना चाहिये । जब अर्थ-अनेक प्रकार के शल्य कांटा, तक तर्पण और पुटपाक का व्यवहार किया पत्थर, वांस आदि जो शरीर के भिन्न भिन्न जाय तबतक तथा उससे भी दूने स्वमयतक | स्थानों में सजाते हैं उनको खींचकर निहिताहार विहार का सेवन करना उचित है | कालने के लिये यथा उनको देखने के तथा रात्रि में आंखों के ऊपर मालती और | लिये जो उपाय है वह यंत्र कहलाता है । मल्लिका के फूल बांधकर सोना चाहिये । तथा अर्श, भगंदर, नाडी व्रणादि में शस्त्र, अंजनादि के प्रयोगकी आवश्यकता। क्षार और अग्निकर्मादि के प्रयोग करने __ सर्वात्मना नेत्रबलाय यत्न पर उनके पास वाले अंगों की रक्षा करने कुर्बीत नस्यांजनतर्पणाद्यैः ।। दृष्टिश्च नष्टा विविधं जगच्च के निमित्त तथा पस्ति और नस्यादि कर्म . तमोमयं ज्ञायत एकरूपम् ॥ २२॥ | के निमित्त जो उपाय किये जाते हैं वे यंत्र For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy