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निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
(४२५)
द्वंद्वज विसर्पके लक्षण। स्थायी निद्रामें लीन होजाता है । इन लक्षणों वातपित्ताज्ज्वरच्छर्दिमूर्खासारतृभ्रमैः। से युक्त विसर्प को अग्निविसर्प कहते हैं।" अस्थिभेदाग्निसदनतमकारोचकैयुतः।
मंथिविसर्प के लक्षण । करोति सर्वमंगं च दीप्तांगारावकीर्णवत् ।।
कफेनरुद्धःपवनो भित्वा तंबहुधा कफम् ।। य य देश बिसर्पश्च विसर्पति भवेत्स सः।
रक्तं वावृद्धरक्तस्यत्वकासिरानावमांसगम्। शांतांगारोसितो नीलो रक्तो वाशुचचीयते।
दूषयित्वाचदीर्घाणुवृत्तस्थूलखरात्मनाम् । अग्निदग्ध इव स्फोटैः शीघ्रगत्वाद्रुतं च सः।
ग्रंथीनांकुरुतेमाला रक्तानां तीब्ररुग्ज्वराम्। मर्मानुसारी वीसर्पः स्याद्वातोऽतिबलस्ततः।।
श्वासकासातिसारास्यशोषहिमायमिनमैः व्यथतांगं हरेत्संज्ञां निद्रां च श्वासमीरयेत् ।
मोहवैवर्ण्यमूगभङ्गाग्निसदनैर्युताम् । हिमांच स गतोऽवस्थामीहशो लभते नना
इत्ययम् ग्रंथिवीसर्पः कफमारुतकोपजः॥ कचिच्छारतिग्रस्तोभूमिशय्यासनादिषु ।
अर्थ-दूषित कफसे अवरुद्ध मार्गवाला चेष्टमानस्ततः क्लिष्टो मनोदेहश्रमोद्भवाम् ॥
वायु अपने रोकनेवाले कफके टुकडे २ कर दुष्प्रबोधोऽश्नुते निद्रां सोऽग्निवीसर्प
उच्यते । डालतीहै, इससे गांठों की श्रेणी पैदा हो . अर्थ-वातपित्तज विसर्पमें, ज्वर, बमन, जातीहै । अथवा बृदरक्तवाले [ जिसके मुर्छा, अतिसार, तृषा, भ्रम, अस्थिभेद, अग्नि
रुधिर बढगयाहै ] मनुष्य के त्वचा, सिरा, मांद्य, तमकश्वास और अरुचि ये सव लक्षण
स्नायु और मांस इनमें वर्तमान रक्तको दूषिहोते हैं, इसमें सब शरीर जलते हुये अंगारों
त करके वायु वडी, छोटी, गोलाकार,स्थूल कीनाई प्रतीत होताहै । और शरीरके जिस जि खरदरी और लाल रंगकी बहुतसी गांठे पैदा स अवयव में विसर्प फैलता है वही वही अंग
करदेती है । इनमें वडी तीव्र वेदना होतीहै बुझहुए अंगारके समान काला, नीला, अथवा
तथा श्वास, खांसी, अतिसार, मुखशोष, लाल हो जाता है, अग्निसे जले हुए स्थानकी
हिचकी, वमन, भ्रम, मोह, विवर्णता, मूर्छा, तरह वह फुसियोंसे व्याप्त होजाता है और
अंगभंग और अग्निमांद्य ये लक्षण उपस्थित शीघ्र गामी होनेके कारण हृदयादि मर्मस्था.
होतेहैं । यह कफ और वातके कोपसे उत्पन्न नों पर शीघ्र ही आक्रमण करता है । इसमें
हुआ ग्रंथिवीसर्प कहलाताहै। वायु अत्यन्त प्रवल होकर शरीरमें पीडा, सं
करमविसर्प । ज्ञानाश, निद्रानाश और श्वास और हिचकी कफपित्तान्ज्वरः स्तंभो निद्रातंद्राशिरोरुजः उत्पन्न करता है । विसर्परागी की ऐसी दशा | अंगावसादविक्षेपप्रलापारोचकभ्रमाः॥६॥ होजाती है कि वेदनासे ग्रस्त होनेके कारण । मुनिहानिर्भेदोऽस्नां पिपासेंद्रियगौरवम् । भूमि, शय्या वा आसन पर कहीं भी इधर
आमोपवेशनं लेपः स्रोतसां स च सर्पति।
प्रायेणामाशये गृहणन्नेकदेश न चातिरुक। उधर लेटनेसे सुख प्राप्त नहीं होता है और |
पिटकैरवकीर्णोऽतिपीतलोहितपांडुरैः। ६२। मन, देह और श्रमजनित वेदना से ऐसा दुः मेचकाभोऽसितस्निग्धोमलिनःशोफवान्गुरुः खित होजाता है कि दुष्प्रवोध अर्थात् चिर- ( गंभीरपाकः प्राज्योष्मा स्पृष्टःविनोऽवदीर्यते
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