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( ४२४ )
अष्टांगहृदप |
श्र० १३
अर्थ-विसर्प के दोष और दूष्य शोध
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के समान होते
| अथार्त् जितने प्रकार
का शोफ होता है, उतनेही प्रकार का विस भी होता है ।
से, कान नाक आदि अपनों के अत्यन्त स्फुरण से तृषा के अतियोग से वेगों के विषम रीति से प्रवर्तन होने से, तथा शीघ्र ही अग्नि और बलका नाश होने से जाना जाता है तथा वाह्य विसर्प में उक्त लक्षणों विपरीत होता है ।
विसर्पका अधिष्ठान | त्र्यधिष्ठानंच तं प्राहुर्बाह्यांत रुमयाश्रयात् ॥ यथोत्तरम् च दुःसाध्याः ।
बात बस ।
तत्र वातात्परीसर्पो बातज्वरसमव्यथः । ४७ । शोफस्फुरणनिस्तोरभेदो यामातिहर्षवान् ।
अर्थ-त्रयादिक महर्षि विसर्प के तीन आधर मानते हैं, यथा- वाह्यविसर्प, अंतसिर्प, और वाह्याभ्यंतर विसर्प, इन विसर्पों में उत्तरोत्तर दुःसाध्य होते हैं अर्थात् वाह्य से आभ्यंतर और आभ्यंतर से उभयाश्रित दुःसाध्य होता है ।
वि०में दोषों का विसर्पण |
तत्र दोषा यथायथम् । प्रकोपनैः प्रकुपिता विशेषेण विदाहिभिः ॥ देहे शीघ्रं विसर्पति तेऽतरतः स्थिता वहिः । बहिःस्था द्वितये द्विस्थाः
अर्थ-विसर्परोग में तिक्तोपणादि प्रकोपन हेतुओंसे और विशेष करके विदाही अन्नपा नादि से वातादि दोन शरीरमें शीघ्र फैलते चले जाते हैं । अर्थात् अंतरस्थित दोष शरीर के भीतर, वाह्यस्थ दोप शरीर के बाहर के भाग में और उपयभाग में स्थित दोष भीतर और बाहर दोनों ओर फैलते हैं । अंतराश्रित विसर्प ।
विद्यात्तत्रांतराश्रयम् ॥ ४५ ॥ पतापात्संमोहादयनानां विघट्टनात् । तृष्णातियोगाद्वेगानां विषमं च प्रवर्तनात् । आशु चाग्निवलभ्रंशादतो बाह्यं विपर्ययात् । अर्थ - इन विसर्पो में से अंतराश्रित विसर्प मर्म के उपताप से, मूर्च्छा के होने
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अर्थ- वातजविसर्प में वातज्वर के समान संपूर्ण लक्षण होते हैं, तथा सूजन, स्फुरण, सुई छेदने कीसी पीडा, भेद, आयाम अर्ति और रोमोद्गम । ये सब लक्षण होते हैं ।
पितज बिसर्प | पित्ताद्भुतगतिः पित्तज्वरलिंगोऽतिलोहितः । अर्थ-पित्तजविसर्प में बडी शीघ्र गति और अति लोहित वर्ण होता है तथा इसमें पित्तजज्वर के संपूर्ण लक्षण होते हैं | कफजविसर्प ।
कफात्कंड्रयुतः स्निग्धः कफज्वरसमानरुक् ।
अर्थ - कफज विसर्पमें खुजली और निग्धता होती है, तथा जैसी जहां २ कफज्वर में वेदना होती है, वैसी ही इसमें भी होता है ।
विसर्पकी उपेक्षा का फल | स्वशेषलिंगेश्चीयते सर्वे स्फोटैरुपेक्षिताः । ते पक्कमनाः स्वं स्वं च विभ्रतिव्रणलक्षणम् ।
अर्थ-विसर्प रोगकी चिकित्सा न किये जानेपर इसके चारों ओर अपने अपने दोषों के लक्षणोंसे युक्त फुंसियां होजाती हैं और पककर फुटजानेपर अपने २ दोषों के लक्षण वाले घाव हो जाते हैं ।
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