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अष्टांगहृदये ।
( १० )
समान रीति पर स्थित हैं उसे साधारणदेश
कहते हैं ।
औषधयोजन का काल ! क्षणादिर्व्याध्यवस्था च काले भेषजयोगकृत् अर्थ - आयुर्वेद में औषधों की सम्यक् योजना के लिये दो प्रकार का काल कहा गया है एक क्षणादि, दूसरा व्याधि की अवस्था का काल ।
क्षणादि से लब, त्रुटि, मुहूर्त, याम, दिन, रात, पक्ष, महिना, ऋतु, अयन और संवत्सर का ग्रहण है । यथा: - " पूर्वाह्णे वमनं देयं मध्यान्हे तु विरेचनं । मध्यान्हे किंचिदावृते वस्ति दद्याद्विचक्षणः I
"
साम, निराम, मृदु, मध्य, तीक्ष्णआदि से औषध्यादिक का प्रयोग व्याधि अवस्था का काल है, जैसे लंघनं स्वदेनं कालो यवागूस्तिक्तको रसः । मलानां पाचनानि स्युर्यथा वस्थं क्रमेणवा || ज्वरेपेयाः कषायाश्च सर्पिः क्षीरं विरेचनं । अहं वा षडहं युंजयाद्भीक्ष्य दोषवावलम् || मुदुर्ज्वरो लघुर्देह: चलिताश्च मलायदा । अचिरज्वरितस्यापि भेषजं योज येत्तदा " ||
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औषध का बिषय |
शरीरजानां दोषाणां क्रमेण परमौषधम् । बस्तर्विरेको वमनं तथा तैलं घृतं मधु । २५ अर्थ - शरीर में उत्पन्न होनेवाले वातादिक दोषोंकी शोधनकर्ता तीन प्रधान औषध यथा, बादीका शोधन करनेवाला तेल वा क्वाथादिक की पिचकारी गुदामें लगाना । पित्तका शोधन करनेवाली औषध वैरेचनिक औषधहैं जो मुखद्वारा पीने से भीतर वाले मवादको गुदाद्वारा बाहर निकाल देती हैं । कफको शोधन करनेवाली वमन करानेवाली औषधि हैं जो मुग्वद्वारा पीनसे उसीके द्वारा दोषको बाहर निकालकर फेंक देती है ।
शमनकर्ता, जैसे वादीको तेल, पित्तको घी, और कफको शहद मुख्य औषध हैं । मानसिक दोषको परमौषध । धीधैर्य्यात्मादिविज्ञानं मनोशेषषधं परम् । अर्थ - मनके रज और तम दोषोंके लिये बुद्धि और धैर्य परम औषध हैं और आत्मिक विकारोंके लिये योगाभ्यास, समाधि, परमात्मा के स्वरूप आदिका विज्ञान परम औषध हैं। भला बुरा, हित अनहित इनका विवेक बुद्धिसे होता है । चित्तको दृढ रखना धैर्य से होता है । इर्ष्या, मद, मोह, कामादि जन्यादि विकारोंकी गणना मानसिक विकारों में है ।
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औषधके भेद | शोधनं शमनं चेति समासादौषधं द्विधा २४ अर्थ - औषधोंके अनेक भेद होनेपर भी संक्षेप रीतिसंशोधन और शमन दोही प्रकार की है । जो औषध प्रकुपित दोषको वाहर निकाल कर रोगको शान्त करदेती है उसे संशोधन औषध कहते हैं और जो वहांका वहीं रोगको शान्त करदेती है उसे संशमन कहते हैं |
चिकित्सा के चार पाद भिषग्द्रव्याण्युपस्थाता रोगी पादचतुष्टयम् २६ चिकित्सितस्य निर्दिष्टं प्रत्येकं तच्चतुर्गुणम् ।
अर्थ-- चिकित्सा के चार प्रधान अंग हैं, ( १ ) वैद्य, ( २ ) औषध, [१] परि
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