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शारीरस्थान भाषाटीकासमेत ।
रसा वहुघृता देया माषमूलकजा अपि । वालबिल्वं तिलान्माषान्सक्तंश्च पयसा पिवेत् खमेद्यमांसं मधु वा कट्यभ्यंगं च शीलयेत् । हर्षयेत्सततं चैनामेवं गर्भः प्रवर्धते ॥ २० ॥
अर्थ- जो गर्भ बलवान और अंग प्रत्यंगादि से युक्त होनेपर भी स्फुरण नहीं करता है उसे लीन गर्भ कहते हैं । इसमें बहुत सा घृत मिलाकर श्येन, गोमत्स्य, उत्क्रोश, मोर, ( तीतर मुर्ग ) का मांसरस, तथा उरद और मूलीका झोल घृत मिला हुआ अथवा कच्ची बेलगिरी, कालेतिल, उरद, सत्तू इनको दूध के साथ पावे । तथा मेदुर मांस के साथ मार्दीक मद्यका पान करें और गर्भिणी की कमर में सदा तेल लगाता रहे । इन ती नों प्रकारकी गर्भवाली स्त्रियोंको सदा प्रसन्न रक्खै | ऐसा करनेसे गर्भबढने लगजाता है
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विपरीत आचरण का फल | पुष्टोऽन्यथा वर्णगणैः कृच्छ्राज्जायेत नैव वा ।
अर्थ - उक्त विधि के विपरीत आचरण करने से पुष्ट गर्भ बहुत बरसों पीछे बड़े कष्ट से बाहर निकलता है अथवा जीवन पर्यन्त भर्मिणी की कुक्षि में ही रहा आहै ।
उदावर्तका उपाय | उदावर्त तु गर्भिण्याः स्त्रराशुतरां जयेत् ॥ योग्यैश्व बस्तिभिर्हन्यात्सगर्भा सहि
गर्भिणम् । अर्थ - यदि गर्भिणी के उदावर्त नामक रोग होजाय तो यथायोग्य औषधों से सिद्ध किये हुए चार प्रकार के स्नेहपानादि द्वारा शीघ्रही दूर करने का यत्न करे तथा तत्का
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लोचित अनुवासनादि वस्ति देकर रोगको दूर करे । शंका | पहिले अष्टममासतक वस्तिप्रयोग का निषेध किया गया है फिर यहां इसका विधान क्यों है । समाधान, यह उदावर्त रोग गर्भरहित गर्भिणी का नाश कर देता है इसलिये जैसे हो वैसे इसके दूर करने का शीघ्र उपाय किया जाता है । इस लिये यहां वस्ति प्रयोग की आज्ञा है ।
गर्भ के लक्षण !
उदर में मृत गर्भेऽतिदोषोपचयादपथ्यैदैवतोऽपि वा ॥ मृतेऽतरुवरं शीते स्तब्धं धमातं भृशव्यथम् । गर्भास्पदो भ्रमस्तृष्णा कृच्छ्रादुच्छ्वसनक्लमः अरतिः स्त्रस्तनेत्रत्वमावीनामसमुद्भवः ।
अर्थ- वातादि दोषों के अत्यन्त कुपित होने से अथवा मात्रा काल आदि विरुद्ध स्वभाववाले अपथ्य सेवन से अथवा अन्य जन्मार्जित शुभाशुभ कर्मों के फलसे उदर के भीतर गर्भ का नाश होजाता है । तत्र उदर ठंडा, स्तब्ध, आध्मानयुक्त ( अफरा हुआ ) अत्यन्त वेदना से युक्त, चलने फिरने से रहित, भ्रम, तृषा, श्वास लेने निकालने में कठिनता, क्लान्ति, अरति (उठने बैठने सौने में बैचेनी ) नेत्रों में शिथिलता और प्रसवकाल संबंधी आवि नामक शूलों का न होना । ये लक्षण होते हैं ।
भृतगर्भा का उपचार ।
तस्याः कोणांबुसिकायाः पिष्ट्वा वोनिंप्रलेपयेत् ॥ २४ ॥ गुड किण्वं सलवणं तथांतः पूरयेन्मुहुः । घृतेन कल्कीकृतया शाल्मल्य तसिपिच्छया ॥ मंत्रयग्यैजरायुक्तैर्मूढगर्भो न चेत्पतेत् ।
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