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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१२४) अष्टांगहृदय । अ १५ कारी इनके साथ क्षारके साथ पकाया हुआ ] कि जिस से वायु पेट में अफरा न कर सके, तेल पान करावै । साल्बलस्वेद की विधि सुश्रुत में लिखी है । ____ अरंडी के तेलका प्रयोग ॥ ___ आध्मान में निरूहण । .. कफे वातेन पित्ते वा ताभ्यां वाप्यावृतेऽनिले सुविरिक्तस्य यस्य स्यादाध्मानं पुनरेव तम् बलिनः स्वौषधं युक्तं तैलमैरंडज हितम् । सुस्निग्धैरम्ललवणैर्निरूहैः समुपाचरेत्। __ अर्थ-बाताबृत कफ वा वातावृत पित्त । अर्थ-अच्छी रीति से विरेचन हो में अथवा पित्त और कफ से आबृत वायु | जाने पर भी यदि फिर अफरा हो तो उस में दोषानुसार औषधों के साथ सिद्ध किया | को खटाई और नमक से युक्त सुस्निग्धनिहुआ अरंडी का तेल देना चाहिये । परन्तु रूहण देवे । इसका प्रयोग बलवान् मनुष्य के लियेहै । आध्मान में वस्ति । उदर पर प्रलेप ॥ सोपस्तंभोऽपिवा वायुराधमापयति यनरम् देवदारुपलाशार्कहस्तिपिपलिशिग्रकैः। तीक्ष्णाःसक्षारगोमूत्राः शस्यते तस्य वस्तयः साश्वकर्णैः सगोमूत्रैः प्रदिह्यादुदरं बहिः | अर्थ-कफादि अधार से युक्त वायु ____ अर्थ--ऊपर कहे हुए प्रकार से विरेचन जिस मनुष्य के पेट में अफरा उत्पन्न करै, होने पर उदरमें म्लानता होजाती है इस | उसको क्षार और गोमत्र सहित ताक्षण लिये देवदारु, पलाश, आक, गजपीपल, | वस्ति दैनी चाहिये । सहजना और अश्वकर्ण ( शालवृक्ष विशेष उदरचिकित्सा की समाप्ति । इन सबको पीसकर उदर पर लेप करै । | इति सामान्यतःप्रोक्ता सिद्धाजठरिणांक्रिया उदरका परिषेक ॥ ____ अर्थ-जठररोग की सिद्धचिकित्सा वृश्चिकालीचचाशुंठीपंचमूलपुनर्नवात्।। | सामान्य रीति से वर्णन करदी गई है, अब वर्षाभूधान्यकुष्ठाच क्वाथैर्मत्रैश्च सेचयेत विशेष रूप से कहते हैं ॥ अर्थ--मेंढासिंगी, वच, सोंठ, पंचमल. | वातादर का चिकित्सा पुननेवा, सांठ, धनियां और कठ उनके वांतोदरेऽथ बलिनं विदार्यादिशृतं घृतम् । काढे में गोमूत्र मिलाकर उदर पर परिपेक पाययेतु ततःस्निग्धं स्वेदितांगं विरेचयेत् । बहुशस्तैल्वकेनैन सर्पिषा मिश्रकेण वा ॥ करै । . अर्थ-बातोदररोग में जो रोगी वलउदरवेष्टन ॥ घान् हो तो विदार्यादिगण से सिद्ध किया विरिक्तं म्लानमुदरं स्वेदितं साल्बलादिभिः। | हुआ घी पानकरांव, फिर रोगी का स्निग्ध वाससा वेष्टयेदेवं वायुर्नाऽऽध्मापयेत्पुनः मेटित करके तैल्वक वा मिश्रक घी का वार .. अर्थ-विरेचन द्वारा विरिक्त और | वार प्रयोग करके विरेचन करवे । कँभलाये हुए उदर को साल्वल स्वेद से संसर्गके पीछे धपान । स्वेदित करके पेट को कपडे से लपेट देवे, ते संसर्जने क्षीरं बलार्थमवचारयेत् । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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