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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'म.३९ उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । (९६१) तक दूधके साथ सेवन करें। इस पर केवल | से काले फूलवाला चीता गुणकारक है । इस दूध पीकर रहै । अन्न का सेवन न करे। का विधिपूर्वक सेवन करने से यह रसायन दूसरे महिने में औषध के सेवन कालमें दूध का काम देता है और भन्नका सेवन करे तो वुढापा नष्ट हो चीते का प्रयोग। जाता है। छायाशुभकं ततो मूल मास चूर्णीकृत लिहन अन्य प्रयोग। सर्पिषा मधुसर्पियो पियन् वा पयसा यति; सत्कंदलणचूणे वा स्वरसेन सुभावितम् मेधावी वलवान् कांतोवपुष्मान् दीप्तपावकः अंभसा वा हितानाशी शतं जीवति नीरजः घृतक्षौद्रप्लुतं लिह्यासत्पक्कं वा घृतं पिवेत् । अर्थ-चीतेकी जडको छायामें सुखाकर ___ अर्थ-बाराहीकंद की जडको महीन पीसकर इसमें इसीके रसकी भावना देखें। और अच्छी तरह पीसकर एक महिने तक घीके साथ अथवा घी और शहत के साथ इस औषधको घी और शहतके साथ सेवन सेवन करे और जितेन्द्रिय होकर दूधके साथ करे | अथवा बाराहीकंद के कल्क के साथ पीवे । अथवा हितकारी पथ्य करता हुआ घृत पकाकर पान करे। पानी के संग पीवे । इसके सेवन से मनुष्य अन्य प्रयोग। तद्विदातिवलाबलामधुकवायसी। निरोग होकर सौ वर्षतक जीता है । तथा प्रेयसी श्रेयसीयुक्तापथ्याधात्रीस्थिराभृताः | मेधा, बल, कांति,सुन्दरता और जठराग्निकी मंडुकीशखकुसुमावाजिगंधाशतावरी। वृद्धि ये भी बढते हैं। उपयुंजीत मेधावी पयायबलप्रदाः ॥ अन्य अवलेह । __ अर्थ-विदारीकंद के सदृश ही अतिबला, | तैलेन लीढो मासेन बातान् हंति सुदुस्तरान् बला, मलहटी, काकमाची, पीपल, हरड, मूत्रेण श्वित्रकुष्ठानि पीतस्तकेण पायुजान् ॥ मामला, शालपी, गिलोय, मंडूकपर्णी, अर्थ-चीते के चूर्ण को एक महिने तक शंखपुष्पी, असगंध, सितावर, इनमें से प्रत्येक तेल के साथ सेवन करने से दारुण वातरोग का चूर्ण घी और दूध के साथ सेवन करे। जाते रहते हैं,गोमूत्र के साथ सेवन करने से इससे मनुष्य बुद्धिमान हो जाता है, तथा । श्वित्रकुष्ठ और तक के साथ सेवन करने से वयकी स्थिरता और बलकी वृद्धि होती है। अरोग जाता है। चीते का प्रयोग। भल्लातक प्रयोग। यथास्त्र चित्रकः पुष्पैःयापीतसितासितः। भल्लातकानि पुष्टानि धान्यराशौ निधापयेत् यथोत्तरं स गुणवान् विधिना व रसायनम् प्रीष्मे संगृह्य हेमंते स्वादुस्निग्धहिमैर्वपुः ॥ अर्थ-पीले, सफेद और काले फूलोंसे | संस्कृत्य तान्यष्टगुणेसलिलेऽष्टौ विपाचयेत् | अष्टांशशिष्टं तत्काथं सक्षीरं शीतलं पिवेत् चीतेकी पहचान होती हैं, ये उत्तरोत्तर गुण-अर्धयेत्प्रत्यहं चानु तत्रैकैकमरुष्करम् ।। कारी है अर्थात् पाले से सफेद और सफेद | सप्तरात्रत्रय यावत् प्रापि त्राणि ततः परम् १२१ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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