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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४२४) अष्टांगहृदय । अ.२० मारग्वधं पिवेमं वखाज्यमदनाऽन्धितम् । मस्पकर्म का प्रयोग । अथवा सघृतासक्तकृत्वा मल्लकसंपुटे ८ | धवत्वकृत्रिफलाश्यामाश्रीपर्णीयष्टिबिल्वकैः - अर्थ-सोंफ, दालचीनी, खरैटी की जड क्षीरे दशगुणे तैलं नाघनं समिशः पचेत् । श्योनाक, अरंड और अमलतास की जड, ___ अर्थ--धायकी छाल, त्रिफला, श्यामाइन सब द्रव्यों में चर्वी, घी और मेनफल | लता, खंभारी, मुलहटी, विल्व और हल्दी मिलाकर धूमपान करे । अथवा घृतप्लुत इनके कल्क के साथ दस गुने दूधमें तेल सत्तू को मल्लकसंपुट में दग्ध करके धूम- पकाकर नस्य द्वारा प्रयोग करना चाहिये । पान करे। कफजपतिश्याय में उपाय । स्नानादि निषेध । कफजे लंघनं लेपः शिरसो गौरसर्षपैः । त्यजेत्यानं शुचं क्रोधंभृशंशय्या हिमंजलम् | सक्षारं पा घृतं पीत्वा वमेत् पिष्टस्तु. नावनम् ॥ १३ ॥ . अर्थ-पीनसादि रोग में स्नान, शोक, पस्तांबुना पटुव्योषवेल्लवत्सकजीरकैः।। कोध, निरंतर शयन और ठंडा जल त्याग ____अर्थ-कफजप्रतिश्याय में लंघन,सिरपर देना चाहिये। सफेद सरसों का लेप, जवाखारमिश्रित घृतवातज प्रतिश्याय में कर्तव्य । पियेद्वासप्रतिश्याये सर्पितिध्नसाधितम् । पान करके वमन करना, तथा सेंधानमक, पटुपंचकसिद्धं वा विदार्यादिगणेन था। त्रिकुटा, बायबिडंग और इन्द्रजी । इन सबं स्वेदनस्यादिकां फुर्यात् चिकित्सामर्दितो- द्रव्यों को बकरी के मूत्रमें पीसकर नस्य का 'दिताम् ॥ १०॥ प्रयोग करना चाहिये । अर्थ-पातिक प्रतिश्याय में रास्नादि | सानिपातिक प्रतिश्याय । यातनाशक औषधों के साथ अथवा सैंधवादि । कटुतीक्ष्णैर्वृतैर्नस्यः कवलैः सर्वजं जयेत् ॥ पांचों नमक के साथ अथवा विदार्यादिगण । अर्थ-सान्निपातिक प्रतिश्याय में कटु के साथ घी को पकाकर इस घतको पीवै। और तीक्ष्ण घृत का नस्य तथा कबल प्रयोग इसमें अदित चिकित्सा में कहा हुआ स्वेद करना चाहिये । . और नस्य देना चाहिये। दुष्टपीनस की चिकित्सा। . पित्तरक्तज प्रतिश्याय । यक्ष्ममिक्रम फुर्वन् पाययेदुटपीनसे। पितरक्तोत्थयोः पेयं सर्पिमधुरकैः शृतम् । ___ अर्थ-दुष्ट पानसरोग में यक्ष्मानाशक परिकाम्प्रदेहांश्च शीतैः कुर्वीत शीतलान् | HT और कृमिनाशक चिकित्सा करना चाहिये । - अर्थ-पित्त और रक्त से उत्पन्न हुए मासिकाद्वारा धूमपान । माणोक्त द्रव्यों के साथ | ब्योपोग्बूककृमिजिदू दारुमाद्रीगर्दै गुवम् ॥ घृत को पकाकर उस घृत को पान करावे | वार्ताकबीजं त्रिवृता सिद्धार्थः पूतिमत्स्थका | अग्निमंथस्य पुष्पाणि पीलुशिग्रुफलानि च ॥ तथा शीतवीर्य द्रव्यों का शीतल शीतल | अश्वविडरससूत्राम्या हस्तिमूत्रेण कतः। परिषेक और प्रलेप काम में लाना चाहिये । क्षीमगंभी कृतां वर्ति धूमं घ्राणास्यतः पिवेत् For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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