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अ० १
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत |
[५६७]
वायुकी विगुणता का हेतु ।
- घृतका प्रयोग। धात्वतरोपमर्दाद्वै चलो व्यापी स्वधामगः। गुदरुग्भ्रंश यायुज्यात्सक्षीरं साधितं हविः । बैलं मंदानलस्याऽपि युक्तया शर्मकरं परम् | रसे कोलाम्लचांगेोनि पिष्टे च नागरे वाय्वाशये सतैले हि वियिसी नावतिष्ठते । अर्थ-गुदाशूल और गुदभ्रंशमें कोलाम्ल
अर्थ-पित्तकफादिक अन्य धातुओं के | और चांगेरी का रस, दही, पिसी हुई सोंठ, उपमर्द अर्थात् अन्यभाव को प्राप्त होने से दूध और घी। इन को पाक विधि के अनुसार सर्वशरीरव्यापी वायु अपने स्थान अर्थात् प- पकाकर सेवन करै । ( घीसे कोलादि का काशय में ही अधिकता से रहता है । इस रस चौगुना डाला जाता है)। अवस्था में मंदाग्नि वाले. अतिसार रोगीको
घृत का अन्य प्रयोग। भी विधिपूर्वक प्रयुक्त किया हुआ तेल दुःख
तैरेवचाऽम्लैःसंयोज्यसिद्धसुश्लक्ष्णकल्कितैः को शमन करनेवाला होता है । इसका हेतु धान्योषणबिडाजाजीपांचकोलकदाडिमैः यही है कि पकाशय के सतैल होनेपर प्रत्रा- अर्थ-ऊपर कहे हुए बेर आदि खट्टे हिक किसी तरह रह नहीं सकती है ।
रस तथा धनियां, पीपल, मनयारी नमक, तैलका ही सेवन
जीरा, पंचकोल इनके अच्छी तरह पिसेहुए क्षीणे मले स्वायतनच्युतेषु दोषांतरेवारण एकवीरे।
कल्क के साथ सिद्ध कियाहुआ घी भी पूर्व को निष्टनन्प्राणिति कोष्ठशूली वत् गुणकारी होता है। नांतर्बहिस्तैलपरो यदि स्यात्
गुदशूल में स्नेहवस्त्यादि। अर्थ-पुरीषके क्षीण होने से वातको छो योजयेत्नेहवत्ति वा दशमूलेन साधितम् ड कर पित्तकफादिक अन्य दोषोंके अपने शीशताह्याफुष्टैर्वा वचया वित्रकेण वा अपने स्थानसे भ्रष्ट होजाने पर तथा वायु | अर्थ--जिसकी गुदा में शूल होता हो, के एक मात्र नायक रह जाने पर कोन प्र. | उसे दशमुल के साथ सिद्ध किया हुआ घी वाहिका वाला रोगी जी सकता है, अर्थात् अथवा कचूर, सोंफ, कूठ के साथ अथवा कोई भी नहीं जा सकता है, यदि पान, अ- | बच के साथ अथवा चीते के साथ सिद्ध भ्यंग और अनुवासन द्वारा भीतर और बा- किया हुआ घी स्नेहवस्ति द्वारा प्रयोग किये हर दोनों ओर से तैलका प्रयोग न किया जाने पर गुदभ्रंश और गुदशूल को नष्ट कर जाय । इसका सारांश यह है कि सशूल प्र. देता है। वाहिका रोगी इस दशामें खाने और लगाने
अनुवासन वस्ति । में तेलको काममें न लावैगा तो मरजायगा | प्रवाहणे गुदभ्रंशे मूत्राघाते कटिग्रहे। ( आक्रंदन पूर्व सशूलमुपवेशनं निष्ठनन्नुच्यते | मधुराम्लैः शृतं तैलं घृतं वाप्यनुवासनम् अर्थात् आक्रंदनपूर्वक वेदनायुक्त दस्त आ- अर्थ-प्रवाहण, गुदभ्रंश, मूत्राघात और ते हों उसे निष्ठनन कहते हैं)। | कटिग्रह में मधुर और अम्ल द्रव्यों से सिद्ध
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