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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मे. १७ सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत - कुष्ठशोफप्रमेहेषु स्नेहार्थन प्रकल्पयेत् ४३॥ इतिश्रीअष्टांगहृदये भाषाटीकायां अर्थ-कुष्ठ, शोथ और प्रमेह रोग में षोडशोऽध्यायः । गुड, आनूपमांस, दूध, तिल, माष, मद्य और दही स्नेहन के लिये न देने चाहिये । कुष्ठादि की स्नेहन विधि । सप्तदशोऽध्यायः। त्रिफलापिप्पलीपथ्यागुग्गुल्वादिविपाचितान् --more स्वहान्यथास्वमेतेषां योजयेदविकारिणः ४४ अथाऽतःस्वेदविधिमच्यायं ध्याख्यास्यामः। क्षीणानां त्वामयैरग्निदेहसंधुक्षणक्षमान् ।। : अर्थ-उक्त कुष्ठादि रोगों में त्रिफला, | अर्थ-अब हम यहां से स्वेदविधिनामक | अध्यायकी व्याख्या करेंगे। पीपल और गूगल आदि जो जो औषधे कुष्ठा स्वेदके चार प्रकार । दि के प्रकरण में लिखी गई हैं उसी उसी । " स्वेदस्तापोपनाहोष्मद्रवभेदाच्चतुर्विधः । औषध द्वारा स्नेह को सिद्ध करके प्रयोग । अर्थताप, उपनाह, ऊष्म और द्रवं करै । भेदों से स्वेद चार प्रकार का होता है। ., किन्तु जो अनेक प्रकार की व्याधियों तापस्वेदका लक्षण । द्वारा क्षीण हो गये है उनके लिये अग्नि तापोऽग्नितप्तवसनफालहस्ततलादिभिः॥ __अर्थ-अग्नि से गरम किये हुए वस्त्र, को प्रदीप्त करनेवाले और देहको पुष्ट करने लोहेके फलक वा हथेली द्वारा स्वेद देनेका वाले जो सब प्रकार के स्नेह हैं उनका नाम तपस्वेद है । आदि शब्द से काष्ठ, प्रयोग करना चाहिये। बालू, घटिका और कांसी के पात्र का भी बारबार स्नेहका फल । ग्रहण है । दीप्तांतराग्निः परिशुद्धकोष्ठः उपनाहस्वेदके लक्षण । प्रत्यग्रथातुर्बलवर्णयुक्तः। उपनाहो वचाकिण्वशताव्हावेदाराभिः । ‘दृढेंद्रियो मंदजरः शतायुः धान्यैः समस्तैर्गधैश्च रात्रैरंजटामिषैः।२। नेहोरसेवी पुरुषः प्रदिष्टः॥ ४६॥ उद्रितलबणैः स्नेहचुक्रतऋपयःप्लुतैः। अर्थ-जो मनुष्य निरंतर स्नेह सेवन केवले पवने श्लेष्मसंसृष्टे सुरसादिभिः।।३।। पित्तेन पद्मकायैस्तु साल्वणाख्यैः पुनः पुनः । करता रहता है उसकी आग्नि प्रदीप्त, कोष्ठ ____ अर्थ-केवल वायुके प्रकोपमें वच, परिशुद्ध ( साफ कोठा ), रस रक्तादि धातु किण्व, शतमूली, देवदारु, धनियां, (तिल, वर्द्धित, इन्द्रियगण दृढ, और वृद्धावस्था | अलसी, माषकलाय तथा अन्य उष्णवीर्य थोडी ये लक्षण होते हैं, तथा यह सौ वर्ष | द्रव्य भी यहां प्रयोज्य है ) समस्त गंध पर्यन्त जीवन धारण करता है। द्रव्य जैसे कूठ, अगर तगर, सुरसा आदि; For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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