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(८७४)
अष्टोगहृदय ।
म० २६
टांके भरदे और ऐसी रीति से बांधदे कि । षेक करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि फटा हुआ न रहै ।
| स्नेह से ब्रणमें क्लेदता उत्पन्न हो जाती है । . उक्तरोग में घृतपरिषेक ।
उक्तरोगमें तेल । आजेन सर्पिषा चाऽत्र परिषेकः प्रशस्यते । | कालानुसार्यगुर्वेलाजातीचंदनपर्पटैः । उत्तानोऽन्नानि भुंजीत शयीत च सुयंत्रितः। शिलादाय॑मृतातुत्थैः सिद्धं तैलंचरोपणम्। __ अर्थ-प्रीवा के छिन्न होजाने पर बकरी अर्थ-कालानुसारी ( शीशमके वृक्ष का के घी से सेचन करे । और ऊंची गर्दन निर्यास ), अगर, इलायची, चमेली के पत्ते, करके भोजन करे और अच्छी तरह बंधन चंदन, पित्तपापडा, मनसिल, दारुहलदी, लगाकर शयन करे।
गिलोय और नीलाथोथा इनको पीसकर इस हाथ में सीवनादि ।
के साथ तेल पकाकर अंडकोषों में लगावे । घासंशाखासुतिर्यवस्थंगासम्पनिवेशिते
यह अंडकोष के घावको भरने के लिये स्यूत्वा वेल्तिबंधेनवर्गीयाधत्तवाससा।
उत्तम मरहम है। चर्मणा गोफणावंघः कार्यश्चासंगते व्रणे।
छिन्नशाखा का दग्धकरना । अर्थ- हाथ और पांव में तिरछी चोट
छिन्नांनिःशेषतः शाखांदग्ध्वातैलेनयुक्तितः। लगने से उस चोट लगे हुए स्थानको यथा- घनीयात् कोशबंधेन ततो वणवदाचरेत् ॥ स्थान में स्थापित करके टांके लगादे और | अर्थ-विशेष छिन्न हुए हाथ पांवोंको गाढेकपडे की पट्टी से बेल्लितनामक बंधन युक्तिपूर्वक गरम तेलसे दग्ध करके कोशद्वारा बांधदे । यदि घाव सम्यक् गीतसे न नामक बंधन से बांध देवै और घाव की मिल सके तो चमडे का बंधन गोष्फण रीति तरह चिकित्सा करना चाहिये । से बांधदेना चाहिये ।
सिरमें वर्तिप्रयोग। बिलंबिमुष्कस्य सीवनादि। कार्या शल्याहृते विद्ध भंगाद्विदलिते किया। पादौ बिलंविमुष्कस्य प्रोक्ष्यनेत्रे चवारिणा। शिरसोपहृते शल्ये वालपति प्रवेशयेत् ॥ प्रवेश्य वृषणी सीब्येत् सेवन्या तुम्नसंज्ञया। मस्तुलुंगनते दोहन्यादेनं चलोऽन्यथा। कार्यश्चगोष्फणावंधाकटयामावेश्यपट्टकम् | व्रणे रोहति चैकैकं शनैरपनयेत्कचम् ॥ रहसेकं न कुर्वांत तत्र क्लियति हि व्रणः।। मस्तुलुंगसतौखादेन्मस्तिकानन्यजीवजान
अर्थ-जिस रोगीका अंडकोष लटक अर्थ-शल्य के द्वारा मस्तक के अत्यन्त पडा हो उसके पांव और नेत्रों को जलसे । बिद्ध होने पर अथवा चोट लगने से विद प्रोक्षया करके ( छोटे मारकर वा धोकर ) लित होने पर भी चिकित्सा करते ही रहना अंडोंको भीतर प्रविष्ट करके तुन्न नामक चाहिये । शल्यके सिरसे आहत होने पर सीवने से टांके भरदे । और गोष्मण नामक बालों की बत्ती प्रवेश करना चाहिये । यदि बंधन द्वारा कपडे से बांधकर उस कपडे को शल्य न निकला हो तो बत्ती नहीं लगाना कमर से बांधदे । इस घावमें स्नेह का परि- चाहिये । यदि बत्ती लगाई जायगी तो मस्तु.
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