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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
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आमवईक अन्य द्रव्य । परिप्लुत, थोडागरम,पचने में हलका छ: रसों मिश्रं पथ्यमपथ्यं च भुक्तं समशनं मतम् ३३ से युक्त जिसमें मधुर रसकी अधिकताहो, विद्यादध्यशनं भूयो भुक्तस्योपरि भोजनम् । पतला ( जिसमें दही, दूध. यूषादि अधिकअकाले बहु चाललं वा भुक्तं तु विषमाशनम् । त्रीण्यप्येतानिमृत्युवाघोरान व्याधीनसृजंतिवा हो ) हृय, अन्न, व्यंजन भख लगने पर
अर्थ-पथ्य और अपथ्यका मिलाकर अपने परिवार के लोगों के साथ भोजन करे, खाना वैद्यक शास्त्रमें समशन कहलाताहै । भोजन करने में बहुत बोलना उचित नहीं भोजन करनेके थोडी देरं पीछेही अर्थात् है । भोजन क ने में बहुत जल्दी वा बहुत पहिला आहार बिना पचही फिर भोजन कर विलंब भी न करें । लेनेका नाम अध्यशनहै । कभी उचित काल त्याज्य भोजन । में, कभी कुसमय, कमी थोड़ा और पं.भी
भोजनं तृणकेशादिजुष्टमुष्णीकृतं पुनः। बहुत खा लेना विषमाशन कहलाता है । ये
शाकावरान्नभूयिष्ठमत्युष्णलवणं त्यजेत् ३
अर्थ-जिस भोजन में तिनुके वा बाल तीनों ही मृत्यु वा घोर व्याधि को उत्पन्न
पडे हों, अथवा पक्क भोजन शीतल होने पर करते हैं।
| फिर गरम किया गयाहो, अथवा दूषित शाभोजन का क्रम ।
क व्यंजनादि अथवा अति उष्ण वा अति कालेसात्म्यं शुचि हितंस्निग्धोष्णं लघुतन्मनाः
नमकयुक्त भोजन नहीं करना चाहिये । षडूसं मधुरप्रायं नातिदुतविलम्बितम् ।। मातःक्षुद्वान्विविक्तस्थो धौतपादकराननः॥ किलाटादि का निषेध ।। तर्पयित्वापित देवानतिथीन्वालकान्गुरून् ॥ किलाटदधिकचीकाक्षारशुक्ताममूलकम् । प्रत्यवेक्ष्य तिरश्चोऽपि प्रतिपन्नपरिग्रहान् ॥ कृशशुष्कवराहाविगोमत्स्यमहिषामिषम् ४० समीक्ष्य सम्यगात्मानमनिन्दन्नबुवन्द्रवम्। माषनिष्पावशालूकथितपिष्टविरूढकम् । इष्टमिष्ठः सहाश्नीयाच्छुचिभक्तजनाहृतम् ३८ शुकशाकानियवकान्फाणितंच नशीलयत ___ अर्थ-स्नानकरने के पीछे हाथ पांव अर्थ--किलाट, दही, कूर्चिका, क्षार,
और मुख धोकर, पित्रोंको पिंडदान, देवता शुक्त कच्चीमूली, दुवलेजानवरका मांस, सूखा गणों को अन्नव्यंजनादि निवेदन, अतिथि | मांस इसी तरह शकर, भेड, गौ,मछली, और वालक और गुरुजनोंको भोगन कराके तथा सका मांस, चौरा, सेम, शालूक, मृणाल, पशु पक्षी दास, दासी आदि प्रतिपाल्यगणों पिष्टक, अंकुरितअन्न, सूखेसाग, यवक और के आहार पर लक्ष्य रखकर अपने शरीरकी फाणित इनका सेवन न करै । अवस्थाकी विवेचना करके आहार के उपर्यु- सेवनयोग्य द्रव्य । क्त कालमें एकान्त स्थान में बैठकर शद्ध आ. शीलयेच्छालिगोधूमयवषष्टिकजाङ्गलम् । चरणवाले अनुरक्त मनुष्यद्वारा परोसाहुआ घतदिव्योदकक्षारक्षौद्रदाडिमसैन्धवम् ॥
पथ्यामलकमृद्धीकापटोलीमुद्गशर्कराः।।२।, प्रकृति के अनुकूल पवित्र, सुपथ्य, घृतादि त्रिफलां मधुसर्पियानिशि नेत्रबलाय च ४३
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