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कल्पस्थान भाषाटीकासमेत ।
ने पर वस्तिद्वारा प्रयोग करे। अथवा पि- स्वस्थ हितो जीवनवृहणश्च । च्छावस्ति वा घृतमंड का अनुवासन देवै ।
बस्तौ च यस्मिन्पठितो न कल्कः
सर्वत्र दद्यादमुमेब तत्र ॥३॥ ___ गुदभ्रंश की चिकित्सा ।
अर्थ-खटी, गिलोय, त्रिफला, रास्ना गुदं भ्रष्टं कषायैश्च स्तंभयित्वा प्रवेशयेत् । - अर्थ-गुदा के बाहर निकल आनेपर क
और दशमूल प्रत्येक एक पल, मेनफल भाठ
पल,बकरे का मांस पचास पल, इन सब द्र. पायरसयुक्त द्रव्यों के काढे द्वारा इसको स्तं.
व्यों से चौगुना जल डालकर पकावै चौथाई मित करके भीतर प्रवेश करदे । संज्ञानाश में गायनश्रवण ।।
शेष रहने पर उतारकर छानले । फिर इस विसंशं श्रावयत्साम वेणुगीतादिनिस्वनम्
काढेमें अजवायन, मेनफल, बेलागरी, कूठ, अर्थ-जो रोगी बेहोश हो गयाहो तो
बच, सोंफ, नागरमोथा इनका कल्क डालदे सामवेद के भजन, बंशी की ध्वनि वा गीत गुड, मधु, घृत, तेल, और नमक इनमें से सुनाना उचित है।
घी और तेल बातमें काढे से चौथाई, पित्त इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां
में षष्ठांश, और कफमें अष्टमांस मिलावे तथा भाषाटीकान्वितायां कल्पस्थाने
गुड, मधु, और नमक भी ऐसे प्रमाण से तृतीयोऽध्यायः।
मिलावे कि जिससे न तो अत्यन्त अच्छता
और न अधिक नमकीनता हो । फिर इस
काढेका वस्तिद्वारा प्रयोग करे । यह सर्वरोग चतुर्थोऽध्यायः । नाशक और सुस्थ मनुष्यों को हितकारी ब.
था जीवन और वृंहण है । यदि पस्ति के अथाऽतो दोषहरणसाकल्यं बस्तिकल्पं । किसी प्रयोग में कल्कका वर्णन न हो तो
व्याख्यास्यामः॥ यही यवान्यादिक कल्क समझना चाहिये । अर्थ-अब हम यहांसे दोषहरण साकल्य
निरूहण वस्ति । यस्तिकल्प नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे। द्विपंचमूलस्य रसोऽम्लयुक्तः सर्वगदप्रमाथी वस्ति ।
सच्छागमांसस्य स पूर्वकल्कः ।
विहयुक्तः प्रवरो निरूहः । "बलां गुडची त्रिफलां सरानां
सर्वानिलव्याधिहरः प्रदिष्टः॥४॥ द्विपंचमूलं च पलोन्मितानि ।
अर्थ-दशमूल का काढा बकरे के मांस अष्टौ फलान्यर्धतुलां चमांसाच्छागात्पचेदप्सु चतुर्थशेषम् ॥१॥ के साथ कांजी मिलाकर और पूर्वोक्त यवानी पूतो यवान फलावल्वकुट.
आदि का कल्क डालकर घी, वसा और वचाशताहाघनपिप्पलीनाम् ।
| मज्जा इन तीनों स्नेहों से युक्त निरूहण कल्कैर्गुडक्षौद्रकृतैः सतैलैयुक्तःसुखोष्णोलवणान्वितश्च ॥२॥
घस्ति सर्वोत्तम और सब प्रकार की बातबस्तिः परं सर्वगनमाथी
व्याधियों को दूर करनेवाली है।
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