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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७००) अष्टांगहृदय ।।... अ.३ स्निग्धाम्ललवणा हद्या यूषमांसरसा हिताः | खाने को दे । जो इसको कुत्ते वा कौए फलान्यम्लानिखादेयुस्तस्य चान्येऽग्रतोनराः खालें तो जीवरक्त जानना चाहिये और न निःसृतां तु तिलद्राक्षाकल्कलिप्तांप्रवेशयेत् अर्थ-अत्यन्त वमन करनेसे जिह्वा के खांय तो पित्त समझना चाहिये । दूसरी भीतर घुसनाने पर कवलधारण, चिकने परीक्षा यह है कि किसी सफेद वस्त्रपर इस खट्टे और नमकीन रसोंसे युक्त ह्रदय को रक्तको लगाकर धूपमें सुखाले और गरम हितकारी यूष, तथा बकरे के मांसरस का | जलसे धोवै यदि कपडे पर मैलापन आजाय प्रयोग करै । उस रोगी के सन्मुख दूसरे तो पित्त समझना चाहिये और किसी प्रकार आदमी को खट्टा फल खाने को दे । जिव्हा का दाग न रहै तो जीवशोणित समझना के बाहर निकल आनेपर तिल और दाखका चाहिये। कल्क जिव्हा पर लगाकर उसे भीतर करदे । तृषादि में प्राणरक्षण क्रिया। वाग्ग्रहादिमें यवागू ।. तृष्णामूर्खामदातस्य कुर्यादामरण क्रियाम् । वाग्ग्रहानिलरोगेषु घृतमांसोपसाधिताम् ॥ रक्तपित्तातिसारनी तस्याशु प्राणरक्षणीम्। मृगगोमहिबाजानां सबस्कं जीवतामसृक् ॥ यवागू तयुकां दद्यात्नेहवेदीच कालवित् । पिबेज्जीवाभिसंधानं जीवंतदयाशुगच्छति अर्थ-वाणी के रोकनेवाले वातरोगों | तदेव दर्भमृदितं रक्तं बस्ती निषेचयेत् ॥ में घी और मांसरस के साथ सिद्ध की हुई अर्थ-तृषा, मूर्छा और मद रोगसे पीयवागू को पतली करके पान करावे तथा डित रोगीका वैरेचनिक औषध के अतियोस्नेह और स्वेदन देवै । ग से जीवशोणित निकल जाय तो रक्तपिभीवरक्त की परीक्षा । त्तातिसार के नाश करनेवाली प्राणरक्षणी अतियोगाच्च भैषज्यं जीवहरति शोणितम् । क्रिया को तत्काल उपयोग में लावे । हरिण तजीवादानमित्युक्तमादत्ते जीवितं यतः। गौ और भंस का ताजी रुधिर पान करावै । शुने काकाय वा दद्यात्तेनान्नमसृजासह । भुक्त तस्मिन् वदेज्जीवमभुक्तपित्तमादिशेत् यह रुधिर शीघ्रही जीवशोणित से मिलकर शुक्लं वा भाषितं वस्त्रमावानं कोणवारिणा उसे पुष्ट कर देता है । तथा इन्हीं मृगादि के प्रक्षालितं विवर्ण स्यात्पित्ते शुद्धं तु शोणिते । रक्तमें नई पैदा हुई कुशाको मलकर वस्ति. ___ अर्थ-जो विरेचन औषध के अतियोग ! स्थान में सेवन करे । से जीवनामक रक्तका हरण करती है उस उक्तरोग में दुग्धपान । औषध को जीवादान अर्थात् जीवरक्त को | श्यामाकाश्मर्यमधुकदूर्वोशीरैः शृतं पयः। हरनेवाली कहते हैं । परन्तु विरेचन के | घृतमंडांजनयुतं बस्ति वा योजयेद्धिमम् ॥ पिच्छाबस्ति सुशीतं वा घृतमंडानुवासनम् अतियोग से जो रक्त निकलता है वह रक्त अर्थ- श्यामा, खंभारी, मुलहटी, दूर्वा है वा पित्तहै, इस बात की परीक्षा के लिये | और खसकी जड इनके साथ औटाये हुए इस रक्तमें अन्न मिलाकर कुत्ते वा कौए को दूध घृतमंड और रसौत मिलाकर ठंडी हो For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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