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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० २५ उत्तरस्थान भाषाकासमेत। (८६९ ) अर्थ-सूखे हुए, अल्पमांस से युक्त और | से भी शुद्ध न होते हों उनको अग्नि कर्म गंभीर घाव में न्यग्रोधादि, और पनकादि से शुद्ध करना चाहिये । जो द्रव्य उरसादन गण द्वारा तथा असगंध, खरैटी और तिल में कहे गये हैं उन सबका शुद्ध घाबमें रोपद्वारा उत्पादन करना चाहिये । तथा मांसा- क्रिया द्वारा प्रयोग करना चाहिये । हारी प्राणियों का मांस खूब मसाले डालकर घावको पुरानेवाले द्रव्य ॥ खाना चाहिये, क्योंकि मांसभक्षियों का अश्वगंधारुहारोधं कट्रफलं मधुयष्टिका ॥ मांस खाने से शुद्ध चित्तवाला का मांस समंगाधातकीपुष्पं परमं व्रणरोपणम् ।। बढ़ता है। अर्थ-असगंध, दूब, लोध, कायफल, । अन्य अवसादन ॥ मुलहटी, मजीठ, और धायके फूल ये सब उत्सन्नमृदुमांसानां व्रणानामवसादनम् । द्रव्य घावकों भरनेवाले हैं। जातीमुकुलकासीसमनोहालपुराग्निकः। . अर्थ-ऊंचे उठे हुए और कोमलमांस घावमें तिलका कल्क ॥ अपेतपूतिमांसानां मांसस्थानामरोहताम् वाले घावों चमेली के फूलकी कली, हीरा कल्कंसंरोहणं कुर्यात्तिलानांमधुकान्वितम् कसीस, मनसिल,हरताल,गूगल और चीता ___ अर्थ -मांसस्थ जिस घावसे सडा हुआ इनसे अवसादन करना चाहिये । मांस दूर होगया हो और फिर भी न भरता उत्सन्नवणों का शोधन ॥ उत्सन्नमासान् कठिनान् कंड्रयुक्तांश्चिरोत्थि ... हो तो तिल और मुलहटी का कलक लगाना वगान्सुदुःखशोध्यांश्च शोधयेत्क्षारकर्मणा तिलको श्रेष्ठता ॥ अर्थ-जो घाव ऊंचे,कठोर, खुजलीवाले स्निग्धोष्णतिक्तमधुरकषायत्वैः स सर्वजित् बहुत दिनके और कष्टसे शोधन के योग्य सक्षौदानिंबपत्राभ्यां यतः संशोधनं परम। होते हैं उन्हें क्षारकर्म से शुद्ध करना चाहिये। पूर्वाभ्यां सर्पिषा चासौ युक्तः स्यादाशु . __घाव में अग्निकर्म ॥ रोपणः ॥ ५५॥ स्रवतोऽश्मरिजामूत्रं ये चान्ये रक्तवाहिनः। अर्थ-स्निग्ध, गरम, तिक्त, मधुर और छिन्नाश्च संधयो येषां यथोक्तैर्ये च शोधनैः कषाय ये सब गुण तिलमें हैं, इसलिये शोध्यमाना न शुद्धयति शोध्याः स्युस्तेग्नि | तिलका कल्क सर्वरोगनाशक होता है । कर्मणा ॥५१॥ शुद्धानां रोपणं योज्यमुत्सादाय यदीरितम् शहत और नीमके पत्तों से संयुक्त तिलका ___ अर्थ-पथरी से उत्पन्न हुए सब प्रकार | कल्क व्रणके शोधनमें परमोत्तम है । तथा के घावों में से मूत्र निकलता हो, जिन घावों । नीमके पत्ते, घी शहत और तिलका कल्क में से रक्त बहताहो, जिनकी संधियां छिन्न मिलाकर प्रयोग करने से घाव शीघ्र भर होगई हो, जो यथायोग्य शोधन क्रियाओं | जाता है । तान् ॥ चाहिये। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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