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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. ३६ उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । (९२९) विर्षे में घृतको उत्तमता। | भेद से विस्तारपूर्वक अनेक प्रकार के होते सर्वेषु सर्वावस्थेषु विषेषु न घृतोपमम् ॥ हैं। विस्तारपूर्वक वर्णन की आवश्यकता विद्यते भेषजं किंचिद्विशेषात्प्रबलेऽमिले। | न होने के कारण यहां सविस्तर वर्णन नहीं अर्थ-सब प्रकार के विषों में तथा विष किया गया है। की संपूर्ण अवस्थाओं में घृत के समान और कोई औषध नहीं है । विशेष करके घाता दीकरादि के विषकेगुण । | विशेषाद्क्षकटुकमम्लोणंस्थादुशीतळमू धिक्य विष में घीअत्यन्त फलदायक औषधहै | विष दींकरादीनां क्रमाद्वातादिकोपनम् ।, . विषको साध्यासाध्यत्व । ____ अर्थ-दर्वीकर, मंडली और राजिमान् अयत्नात्श्लौष्मिकं साध्यं यत्नात् पित्ताशया इन तीनों प्रकार के साँके विष अतिशय श्रयम् । सुदुःसाध्यमसाध्यं वा वाताशयगतं विषम् रूक्ष, कटु, अम्ल, उष्णवीर्य, स्वादु और . अर्थ-कफगतविष अल्पयत्नसे ही साध्य | स्पर्श में शीतल होते है । इनके विष क्रमहोता है, पित्ताशयगत विष यत्नसे साध्य पूर्वक वात, पित्त और कफके प्रकोपक होते हैं। होता है, तथा वाताशयाश्रित विष अत्यन्त विषोल्वणता का काल । दुःसाध्य वा असाध्य होता है । तारुण्यमध्यवृद्धत्वे वृष्टिशीतातपेषु च ॥ इति अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाठीका-विषोल्वणा भवस्येते व्यंतरा ऋतुसंधिषु । न्वितायोउत्तरस्थाने विषप्रतिषेधो । । अर्थ-दौकरादि सर्पो के विष तरुणानाम पंचविंशोऽध्यायः॥३१॥ वस्था से मध्यावस्था में और मध्यावस्था से वृद्धावस्था में वृद्धिको प्राप्त होते हैं । इसी पत्रिंशोऽध्यायः। तरह वर्षाऋतु की अपेक्षा जाडे में और जाडेकी अपेक्षा गरमी में इनका विष बढ़ता -(----) है । तथा विजातियोंका विष ऋतुकी अथाऽतः सर्पविषप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः। संधियों में बढ़ता है। ___ अर्थ-अब हम यहांसे सर्पविष प्रतिषेध दवाकर सपों के लक्षण । नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे । रथांगलांगलच्छत्रस्वस्तिकांकुशाधारिणः॥ साँके तीन भेद । फणिनः शीघ्रगतयः सर्पो दीकराः स्मृताः दीकरा मंडलिनो राजीमंतश्च पन्नगाः।। अर्थ-चक्र, हल, छत्र, स्वस्तिक (सथिया) विधा समासतो भौभा भिद्यते ते त्वनेकधा। और अंकुश के चिन्हवाले, फणवाले, और व्यासतो योनिभेदेन नोच्यतेऽनुपयोगिनः। शीघ्रगामी सर्प दर्वीकर होते हैं। ___ अर्थ-संक्षपसे सर्प तीन प्रकार के कहे । मंडली के लक्षण । गये हैं, यथा-दीकर,मंडली और राजि- या मंडलिनोऽभोगा मंडलैर्विविधैश्चिताः मान् इनका स्थान भूमि होता है । ये योनि- प्रांशवा मंदगमना For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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