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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७२) अष्टांगहृदय । किया हुआ घी पान और अभ्यंजन द्वारा | महाविद्याश्रवण | प्रयोग किये जानेपर पिशाच ग्रहों की शांति | महाविद्यां च मायूरी शुचितश्रावयेत्सदा । कर देता है। ____ अर्थ- उस ग्रहपीडित रोगी को स्नानानस्य प्रयोग। दि द्वारा पवित्र करके मायूरी महाविद्या का वस्तांबुपिष्टैस्तैरेव योज्यमंजननावनम् ४७ । स्तोत्र सदा सुनाता रहै । अप-उपर कह हुए सपूर्ण दव्या को भूतेश की पूजादि। बकरे के मूत्रमें पीसकर अंजन और नस्य भूतशं पूजयेत् स्थाणु प्रेमथाख्यांश्चद्वारा प्रयोग करना चाहिये । तगणान् । जपन सिद्धांश्च तन्मंत्रान्बविर्य । प्रहान्सर्वानपोहति ॥ ५२ ॥ " देवर्षिपितृगंधर्व तीक्ष्णं नस्यादि वर्जयेत्। ____ अर्थ-भूतनाथ शिवजी, तथा प्रमथ सर्पिः पानादिमृद्धस्मिन् भैषज्यमवचारयेत् | नामक महादेवके गणों का पूजन करे । .... अर्थ-देव, ऋषि, पितृ और गंधर्व ग्रहों । तथा संपूर्ण ग्रहों की शांति के निमित्त सिद्ध में तीक्ष्ण नस्यादि का प्रयोग न करना मंत्रोंका जपभी करना चाहिये । चाहिये । इनमें मृदु घृतपानादि व्यवहार में अन्य हितकारक कमे । लाना उचित है। यञ्चानंतरयोः किंचिद्वक्ष्यतेऽध्याययोर्हितम् गहों में प्रतिकूलाचरण निषेध । यच्चोक्तामह तत्सर्व प्रयुजीत परस्परम् ५३ ऋते पिशाचान्सर्वेषु प्राक्लिं च नाचरेत् । अर्थ-यहां से आगे उन्माद और अप. सवैधमातुरं घ्नति क्रुद्धास्ते हि महौजसः॥ स्मार प्रतिषेध नामक दो अध्यायों में जो कुछ ___ अर्थ-पिशाच ग्रह के सिवाय और कहेंगे तथा जो जो चिकित्सा देवग्रहादिकों किसी ग्रह के निमित्त प्रतिकूल आचरण न की शांति के निमित्त इसी अध्याय में कही करना चाहिये क्योंकि देवादि ग्रह महात- गई है. ये सब देवग्रहों की परस्पर शांतिके जस्वी होते हैं, ये कापत होकर वैद्य और | निमित्त उपयोग में लाना चाहिये । रोगी दोनों को नष्ट करदेते हैं । | इति श्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषासर्वग्रहार्थजपविशेष । टीकान्वितायां उत्तरस्थाने भूतप्रईश्वरं द्वादशभुज नाथमार्यावलोकितम् । तिषेधो नामपंचमोऽध्यायः। सर्वव्याधिचिकित्सतंजपसवग्रहान् जयेत् तथोन्मादानपस्मारादन्यं वा चित्तविप्लवं षष्ठाऽध्यायः । अर्थ- सर्वरोग नाशक द्वादशभुजी भैरव का मंत्र और जपकरनेसे सब प्रकार के अथाऽत उन्मादप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः । रोग, उन्माद , अपस्मार तथा अन्य चित्त के | अर्थ-अब हम यहां से उन्मादप्रतिषेध विकार नष्ट हो जाते हैं। नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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