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अष्टांगहृदये।
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को दूर करताहै, तथा जठराग्नि को अत्यन्त तृण पंचमूल। प्रदीप्त करते हैं।
तृणाख्यं पित्तजिद्दर्भकासेक्षुशरशालिभिः । ___ महापंचपल। विल्बकाश्मर्यतारीपाटलाटुण्टुकर्महत् ॥
अर्थ-कुश, काश, इक्षु, शर और शाली अयेत् काषायतिक्तोष्णं पञ्चमूलं कफानिलौ।
धान्य इनकी जड़को तृण पंचमूल कहते हैं
यह पित्तनाशक होता है । अर्थ--बेल, खंभारी, अरनी, पाटला
अध्यायका उपसंहार ॥ और श्यौनक इन पांचों के मूल को महा
शूकशिंबीजपक्कान्नमांसशाकफलौषधैः।१७१ । या बृहत्पचमूल कहते हैं । यह कषाय, तिक्त
वर्गितैरनलेशोऽयमुक्तो नित्योपयोगिकः ।, और उष्ण है तथा कफ और वात को दूर
__ अर्थ--नित्य व्यवहार में आने वाले शूक करताहै । लघुपंचमूल ।
धान्यवर्ग, शिंबी धान्यवर्ग, पक्वान्नबर्ग, मांस हस्वं वृहत्यंशुमतीद्वयगोक्षुरकैःस्मृतम् १६६ वर्ग, शाकवर्ग, फलबर्ग और औषधवर्ग इन स्वादुपाकरसं नातिशीतोष्णं सर्वदोष जित् ।
सबका संक्षेप रीति से इस अध्याय में वर्णन ___ अर्थ--दोनों कटेरी, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी
किया गया है । नित्य काम में न आनेवाले और गोखरू इनको लघुपंचमूल कहते हैं
बहुत से द्रव्य रहगये हैं. । पर यहां ग्रंथकर्ता यह पाक और रसमें मिष्ट है न बहुत ठंडा है न बहुत गरम है तथा सव दोषों को दूर
ने सामान्य उपयोग पर लक्ष्य रखकर ही
लिखा है । क्योंकि मात्रा, योग, क्रिया, देश, करने बाला है। मध्यमपंचमूल ।
काल इत्यादि कारणों को लेकर कितनीही पलापुनर्नवैरण्डशूर्पपर्णीद्वयेन तु ॥१६७॥ जगह द्रव्यों में उक्त गुणों से विपरीतता हो मध्यमं कफवातघ्नं नातिपित्तकरं सरम् ॥
जाती हैं । जैसे मात्राः-तिल की मात्रा के __ अर्थ - खरैटी, सांठी, अरंड, मुद्गपर्णी
तुल्य विष खाना भी अमृत के समान गुणऔर माषपर्णी इन पांचों की जड को मध्यम पंचमूल कहतेहैं। यहकफवातनाशकहै अतिशय
कारी होजाता है । योग:-भिलावा कोढ पित्तकारक नहीं है, दस्तावर है ।
उत्पन्न करताहै पर तिल के साथ खायाजाय जीवनपंचमूल ।
| तो कोढ जाता रहता है । क्रिया-सत्त हलका अभीरुवीराजीवन्तीजीवकर्षभकैः स्मृतम् ॥ होता है पर उसके लड्डू बनाकर खाने से जीवनाख्यं च चक्षुष्यं वृष्यं पित्तानिलापहम् भारी होजाता है । इत्यादि इत्यादि
अर्थ-सिताबर, क्षीरकाकोली, जीवनी, जीवक और ऋषभक इन पांचोंकी जडको ।
इतिश्री अष्टाङ्गहृदये भाषाजीवन पंचभूल कहते हैं, यह नेत्रपक्ष में हि
टीकायां षष्ठोऽध्यायः ॥ तकर, वृष्य और वातपिनाशकत्तहैं।
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