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अष्टांगहृदय ।
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नहीं करता है उसके ग्रहणी रोग हो जाता | ग्रहणी का पूर्वरूप । है। जठराग्निको मंद करनेवाले अन्नपान के | प्राग्रूपं तस्य सदन चिरात्पचनमम्लकः।१९। सेवनसे भी यहरोग उत्पन्न होजाता है। प्रसेको वक्रङ्करस्यमरुचिस्तृट्रक्लमो भ्रमः । अतिसार और ग्रहणीमें अंतर।
आनद्धोदरता छर्दिः कर्णक्ष्वेडोऽत्रकूजनम् । सामं शकाभिरामं वा जीर्णे येनातिसार्यते ॥
अर्थ-अंगमें शिथिलता,अन्नका देरमें पसोऽतिसारोऽतिसरणादाशुकारी स्वभावतः| चना, खट्टी डकार आना, मुखस्राव, मुखमें
अर्थ-आहार के पचनपरं ब्याधिद्वारा विरसता, अरुचि, तृषा, क्लान्ति,भ्रम, पेट जो साम वा निराम मल अतिशय करकें । में अफरा, वमन, कर्णक्ष्वेड, और अंत्रकूजन। निकलता है उसे आतसार कहते हैं । मल | ये ग्रहणी के पूर्वरूप हैं । के अत्यन्त निकलने के कारण इसको हणी का सामान्य लक्षण । अतिसार कहते हैं, यह स्वाभाविक ही शी
सामान्य लक्षणं कार्य धूमकस्तमकोज्वरः । घ्रकारी होता है।
मूर्छा शिरोरुग्विष्टंभः श्वयथुः करपादयोः। ग्रहणी दोषका स्वरूप ।
अर्थ-देहमें कृशता,धूमनिगर्भवत्प्रतीति, सामं सान्नमजीर्णेऽन्ने जाणे पक्कं तु नैव वा। अकस्माद्वा मुहुर्बद्धमकस्माच्छिथिल मुहुः।
तमक, ज्वर, मूर्छा, शिरोबेदना, विष्टंभ और चिरकृद्ग्रहणीदोषः संचयाच्चोपवेशयेत् । | हाथ पांवमें सूजन ये चारों प्रकार की ग्रह
अर्थ-ग्रहणी रोगमें मुक्त अन्नके अजीर्ण णीके सामान्य लक्षणहैं । होनेपर कभी आमसहित और कभी सान्न वावज ग्रहणी । ( भुक्त अन्न ) मल निकलताहै अन्न के तत्राऽनिलात्तालुशोषस्तिमिरं कर्णयोःस्वनः जीर्ण होनेपर कभी पक्का मल और निकल
पा♚रुवंक्षणग्रीवारुजाऽभीक्ष्ण विसूचिका।
रसेषु गृद्धिः सर्वेषु क्षुत्तृष्णा परिकर्तिका। ताहै और कभी कुछ भी नहीं निकलताहै
जीर्णे जीर्यतिचामांनभुक्तेस्वास्थ्यसमश्नुते कभी बिना कारण ही बार बार बंधाहुआ बातहृद्रोगगुल्मार्शः लोहपांडुत्वशंकितः । और कभी ढीला दस्त होताहै, यह रोग
चिरादुःखं द्रवं शुष्कं तन्वाम शब्दफेनवत् । चिरकारी होताहै और मल इकट्ठा हो हो कर
पुनःपुनः सृजेद्वर्चः पायुरुषश्वासकासवान् । निकलताहै । अतिसार और ग्रहणी में यही
- अर्थ-वातज ग्रहणी रोगमें तालुशोष,
तिमिर रोग, दोनों कानोंमें शब्द, पसली, अन्तरहै कि ग्रहणी चिरकारी है और अतिसार आशुकारी होताहै।
ऊरु, वंक्षण और ग्रीवामें दर्द, बार बार ग्रहणी के भेद ।
विसूचिका, मधुरादि संपूर्ण रसोंमें इच्छा, स चतुर्धा पृथग्दोषैःसन्निपाताश्च जायते।। क्षुधा, तृषा, केंची के कतरनेकी सी पीटा। __अर्थ-ग्रहणी रोग चार प्रकार का होता अन्नके पचनेपर वा पाचनकालमें अफरा, है, यथा-वातज, पित्तज, कफज और कुछ भोजन करलैनेपर स्वस्थता ये सब सन्निपातज ।
| लक्षण उपस्थित होते हैं, तथा रोगी वातज
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