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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org अ० ४ चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । (५०३ ) 'वा सालके गौंदका धूआं पौधे, अथवा शल्ल कीका गौंद, गूगल, अगर वा पदमाख इनको घृतमें सानकर आग लगाय धूआं पीवै । खुरों का धूआं पीवे अथवा गूगल, वा मनसिल | वायुर्लब्धास्पदो मर्मसंशोप्याशु हरेदसून् ॥ अर्थ - जिनका कफ बाहर निकलने के लिये उत्क्लिष्ट नहीं हुआ है, जिनको स्वेद नहीं दिया गया है और दुर्बल रोगियों को यदि वमनविरेचन दियागया है तो ऐसा होने से वायु वल पकडजाता है और हृदय मर्मका शोषण करके शीघ्रही रोगी के प्राणों को नष्ट करदेता है । इसलिये उक्त प्रकार के हिचकी और श्वासवालों को बमनविरेचन नहीं देना चाहिये | स्वेदन योग्यों का स्वेदन 1 अवश्यं स्वेदनीयानाम स्वद्यानामपि क्षणम् । स्वेदयेत्स सिताक्षीरैः सुखोष्ण स्नेह सेचनैः ॥ उत्कारिकोपनाहैश्च स्वेदाध्यायोक्तभेषजैः । उरः कंठं च मृदुभिः सामे त्वामविधिं चरेत् अर्थ - श्वास और हिक्का रोग में अवश्य स्वेदन के योग्य अथवा स्वेदन के अयोग्य रोगियों के वक्षःस्थल और कंठ में शर्करा औरं दुग्धसंयुक्त थोडे गरम वृतादि स्नेह द्वारा मृदु स्वेद देना चाहिये | अथवा स्वेदाध्याय में कही हुई औषधियों द्वारा उत्कारिका और उपनाह बनाकर हृदय और कंठ पर मृदु स्वेदन देवे । आम संयुक्त हिचकी और श्वास में आमरहित करने के उद्धवायु में कर्तव्य | अतियोगोद्धतं वातं दृष्ट्वा पवननाशनैः । स्निग्धै रसाद्यैर्नात्युष्णैरभ्यंगैश्च शमं नयेत् । अर्थ- वमन विरेचन के अतियोग से जो वायु कुपित होजाय तो वातनाशक स्निग्ध मांसरसादिक, तथा घी और दूध से सिद्ध किये हुए आहार देने चाहिये तथा कुछ गरम अभ्यंगादि द्वारा वायुका शमन करे । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उक्तदशा में कर्तव्य | कषायलेह स्नेहाद्यैस्तेषां संऽशमयेदतः । अर्थ - ऊपर दिखाये हुए हेतुसे शोधन के अयोग्य रोगियों के श्वास और हिचकी रोगों को कषाय, अवलेह, और स्नेहादिक से शमन करने का यत्न करे । मधुरादि द्रव्यका प्रयोग | क्षीणक्षतातिसारासृक् पित्तदाहानुबंधजान् । लिये लंघन पाचन द्वारा आमकी चिकित्सा | मधुरस्निग्धशीताद्यैौर्हमाश्वासानुपाचरेत् । करनी चाहिये । अर्थ- क्षीण, क्षत, अतिसार, रक्तपित्त और दाह इनके अनुबंध से जो हिचकी और श्वास रोग उत्पन्न होते हैं उनको मधुर, स्निग्ध और शीतवीर्य द्रव्यों से दूर करने का उपाय करे । उक्तरोगों पर मांसयूष । कुलत्थदशमूलानां क्वाथे स्युर्जागला रसाः ॥ यूषाश्व अर्थ - श्वास और हिचकी रोगवालों को कुलथी और दशमूल के काढ़े में सिद्ध किया हुआ जांगल पशुओं का मांसरस वा यूत्र उक्तरोगों में कषाय । अनुत्क्लिष्टकफास्थिन्न दुर्बलानां हि शोधनात् । देवे For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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