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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ. ९. उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । (७७१) ____ अर्थ-दोनों हलदी, लोध, मुलहटी, हरड । दोनों किनारों को मुंगके बराबर अंतर पद नीम के पत्ते, और ताम्रचूर्ण इन सब द्रव्यों से टेढी सुई से टांके भरदे और मस्तक में को जलमें पीसकर बत्ती बनाकर ककूणक पट्टी बांधकर सीने के डोरे को उस में न रोगमें प्रयोग करना हितकारी है । अथवा , कडा,न ढीला बांध देवै । तत्पश्चात् घी और लोहचूर्ण दग्ध करके उसको दूध शहत वा शहत की कवलिका का प्रयोग करै, परन्तु घी के साथ सेवन कराने से भी उपकार इसको बांधना न चाहिये । वेदना कम न होता है। हो तो न्यग्रोधादिगण के काढे में दूध अन्यवर्ती। एलारसोनकतकशंखोषणफणिज के ३३॥ मिलाकर वेदना की जगह परिषेक करे । चर्तिःकुकूर्गपोथक्योःसुरापिष्टैः सकटफलैः पांचवें दिन डोरा खोलकर घाव में गेरू अर्थ-इलायची, रसौत, निर्मली, शंख, | पीसकर लगादे । इसमें तीक्ष्ण नस्य और पीपल, तुलसी इन सब द्रव्यों को सुरा में अंजन का प्रयोग करना भी उचित है । पीसकर बत्ती बनावै । यह बत्ती कुकूणक अशांति में दाहादि । और पोथ की रोगों में हितकारी होती है। दहेदशांती निर्भुज्य वर्मदोषाश्रयां वलीम् । पक्ष्मरोध में चिकित्सा । संदशेनाधिकं पक्ष्म हत्वा तस्याश्रयं दहेतू पारोये प्रद्धेषु शुद्ध देहस्य रोमसु ३४ सूच्यग्रेणाग्निवर्णेन दाहो बाह्यालजे पुनः । उत्सृज्यद्वीभ्रुवोऽधस्ताद्भागौभागं च पक्ष्मतः भिन्नस्यक्षारवह्निभ्यांसुन्छिनस्यार्बुदस्यच यवमात्रेयवाकारंतियाछत्वाऽऽवाससा __ अर्थ-उक्त उपायों का अवलंबन क. अपनेयमसक् तस्मिन्नल्पीभवतिशोणितम् । | रने पर भी जो रोग की शांति न हो तो सीव्येत्कुटिलया सूच्या मुद्गमात्रांतरैः पदैः वर्मदोष के आश्रयवाली बलीको टेढी करके बद्धवा ललाटे पट्टं च तत्र सीवनसूत्रकम् । दग्ध करदेवै । तथा बढे हुए बालोंको चि. मातिगाढश्लथं सूच्या निक्षिपेस्थ योजयेत् मधुसर्पिःकवालकांन चास्मिन्बंधमाचरेत् ।। मटी से नौचकर अग्निवत् तप्त सलाई की न्यग्रोधादिकषायैश्च सक्षीरैः सेचयेदुजि । नौक से दग्ध करदेवै । वाह्य अलजी का पंचमे दिवसे सूत्रमपनीयावचूर्णयेत् । । भेदन करके उसको दग्ध करदेवै और गैरिकेण व्रणं युज्यातीक्ष्णं नस्यांजनादि च अर्वदको अच्छी तरह छेदन करके क्षार अर्थ-पक्षमरोधरोग में रोगों के अधिक और अग्निद्वारा दग्ध करदेना चाहिये । घढ जाने पर शुद्ध शरीरवाले मनुष्य की मृकुटियों के नीचे दो भाग पल्मों के निकट इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटी. एक भाग त्यागकर जौ के बराबर जौके | कान्वितायां उत्तरस्थाने वर्मरोगप्रआकार के सदृश तिरछा छेदन करके गीले : कपडे से रुधिर को रोकदे, इस तरह जब, तिषेधोनाम नवमोऽध्यायः । रुधिर निकलना कम होजावै तब घाव के । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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