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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Singer ( १०० ) लवणतिक्तकषाय, अम्लतिक्तकटुकषाय । लवणरस के संयोग में एक होता जैसे लवणतिक्तकटुकषाय ! पांच पांच रस के मिलने से छः भेद होते हैं इसमें मधुर के संयोग से पांच होते हैं, यथा मधुर अम्ललवणतिक्त कटु, मधुर अम्ललवण तिक्तकषाय, मधुर अम्ललवण तिक्त कटु, कषाय । मधुर - को छोडकर अम्लके संयोग से एक. जैसे अम्ललवण तिक्त कटुकषाय । छः रसके संयोग से एक मधुर अम्ललवतिक्तकटुकषाय होता है । इस तरह कुल मिलाकर सत्तावन और जुदे जुदे छः रस इन सबका योग तिरेसठ होता है । तिरेसठ रस भेदों का विवरण । षट्पंचकाः षट् च पृथग्रसाः स्यु-श्चतुर्द्विको पंचदशप्रकारौ भेदात्रिका विंशतिरेकमेवद्रव्यं षडास्वादमिति त्रिषष्टिः ॥ ४३ ॥ अर्थ - ऊपर के भेदों का विवरण इस तरह है पांच पांच रसों के संयोग से छः दोदो रस के संयोग से पन्द्रह भेद हैं । चार चार रस के संयोग से पन्द्रह भेद । तीनतीन रसके संयोग से बीस छः रसों के संयोग से एक भेद होता है । इस तरह सब मिलकर तिरे सठ भेद होते हैं 1 रसकी सूक्ष्मकल्पना | ते रसानुरसतो रसभेदास्तारतम्यपरिकल्पनया च । संभवति गणनां समतीता दोषभेषजवशादुपयोज्याः ॥ ४४ ॥ अर्थ - ऊपर कहे हुए रस के त्रेसठ भेदों 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir की कल्पना केवल स्थूल भाबमें वर्णन की गई है यदि इनकी कल्पना अनुरसों के तारतम्य से की जाय तो इन के इतने भेद होसकते हैं जो गिनती में भी नहीं आसते । वातादि दोष और हरीतक्यादि औषध की विवेचना करके उक्त रस भेदों का प्रयोग करना उचित है । इति अष्टाङ्गहृदये भाषाटीकायां दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥ अ० १० एकादशोऽध्यायः । अथातो दोषादिविज्ञानीयमध्यायं व्या ख्यास्यामः अर्थ- अब हम यहांसे दोषादिविज्ञानीय अध्याय की व्याख्या करेंगे । ८८ 1 बातादि दोषों के कर्म । 'दोषधातुमलो मूलं सदा देहस्य तं चलः । उत्साहोच्छ्वासानश्वासचेष्टावेगप्रवर्तनैः १ ॥ सम्यग्गत्या च धातूनामक्षाणां पाटवेन च । अनुगृह्णात्यविकृतः पित्तं पक्त्युष्मदर्शनैः ॥ २ ॥ क्षुतृइा चेप्रभामेधाधीशौर्यतनुमार्दवैः श्लेष्मास्थिरत्व स्त्रिग्धत्वसंधिंवधक्षमादिभिः अर्थ - बातादि दोष, रसादि धातु, और मूत्रपुरीषादि मल, ये सब शरीर के मूल हैं अर्थात् जन्मसे मरण पर्य्यन्त अविकृत दोबादि देहको बनाये रखने के प्रधान हेतु हैं । अविकृत वायु, उत्साह, उच्छ्वास (श्वासको बाहर निकालना ), निःश्वास ( श्वास को भीतर खींचना ), चेष्टा ( मन, बाणी और For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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