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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ०१ www.kobatirth.org चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । मुद्रादि यूप बनाने चाहियें । विशेष स्थल में पेयानिषेध | मद्योद्भवे मद्यनित्ये पित्तस्थानगते कफे । ग्रीष्मे तयोर्शधिकयोस्तृट्छर्दिदहपीडिते । ऊर्ध्वं प्रवृत्ते रक्ते च पेयां नेच्छति अर्थ- मद्यसे उत्पन्न हुए ज्वर में, मद्य का नित्य सेवन करनेवाले को, पित्त के स्थान में कफके जानेपर, ग्रीष्म ऋतु में, पिनकफकी अधिकतामें, तृषा, और दाह से पीडित ज्वररोगी को, तथा ऊर्ध्वगामी रक्तवाले ज्वर रोगीको पेया न देना चाहिये । मोद्भवादि में कर्तव्य | तेषु तु । ज्वरापहैः फलरसैरद्भिर्वा लाजतर्पणम् । पिबेत्स शर्कराक्षौद अर्थ-मद्योद्भवादि ज्वरदें दाख और आमला आदि ज्वरनाशक फलों के रसमें वा केवल जलमें सिद्ध किया हुआ चीनी और मधु मिलाकर धान की खील का सत्तू दैना उचित है | उक्त तर्पण के जीर्ण होने पर कर्तव्य । ततो जीर्णे च तर्पणे । यवाग्वामोदनं क्षुद्वानश्नयाष्टतंडुलम् | anorath रसैर्वा मुद्गलावजैः । अर्थ - तर्पण पान के अनंतर तर्पण के जीर्ण होने पर अथवा यवागूपानार्ह मनुष्य की यवागूके पचनेपर जब क्षुधा चैतन्य हो तत्र द्वितीय अन्नकालमें भुने हुए चांवलोंके ओदनका भोजन देना चाहिये । यह ओदन मूंग वा कुलथी आदि के यूपके साथ अथवा मूंग और लावादि पक्षियोंके मांसरस के साथ देना उचित है | दकलावणिक में यह मत Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४६६ ) भेद है कि कोई तो कहते हैं कि नाति मांसास्तनुरसां दकलावणिकाः स्मृताः अर्थात् अम्ल मांसके पतले झोलको दकलावणिक कहते हैं । कोई अल्पमांसपटुस्नेहा दकलावणिकाः स्मृता, लवण और घृतादि स्नेहयुक्त अल्प मांस के झोलको दकलावणिक कहते हैं । छः दिनकी बिधि | इत्ययं षडहो मेयो बलं दोषं च रक्षता ॥ अर्थ- शरीरके बल और वातादि दोषकी रक्षा करता हुआ ज्वर के पहिले छः दिन बिताने चाहिये । दोष की रक्षाका यह प्रयोजन है कि वातादि दोष जो पृथक् पृथक्, दो दो मिलकर वा सब मिलकर ज्वर के कारण हैं वे कष्टसाध्य न होने पावें । अब बल की रक्षा के लिये जो संतर्पण दिया जाता है। तो संतर्पण आमका बढानेवाला है इससे सामदोष की वृद्धि होती है, और आमदोष को घटाने के निमित्त अपतर्पण किया जाता है तो बलकी हानि होती है । इसलिये मध्यमा बृत्तिका अबलंबन करके तर्पणादि द्वारा के प्रथम छः दिवस अतिवाहित क रना उचित है । कषायका प्रयोग | ततः पक्केषु दोषेषु लंघनाद्यैः प्रशस्यते । कषायो दोषशेषस्य पाचनः शमनो यथा ॥ अर्थ - लंघनादि द्वारा जब वातादि साम दोष पक्क होजांय तब छः दिन के पीछे शेष दोष का परिपाक करने के निमित्त यथोपयुक्त मुस्तापर्पटकादि, पाचन कषाय तथा आगे . आने वाला 'कलिंगकादि" पांच प्रकारका शमन कषाय देना उचित है । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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