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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ. ७ चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । (५३७) मद्यं सहायमप्राप्य सम्यक् परिणमेत्कथम् ॥ | लिये बुद्धिमान को उचित है कि सदा इसका __ अर्थ-पाकविधि के अनुसार प्रस्तुत पान करता रहै मद्य आश्रित और उपाश्रित किया हुआ आनूप और जांगल मांस मद्य दोनों के लिये हितकारक है और धर्मसाकी सहायता के बिना कैसे पच सकता है, धनका परम उपाय है। अर्थात् उक्त मांसों को खाकर इनके पचाने मद्यपान की विधि । के लिये मद्यपान करना अवश्कीय है। स्नातः प्रणम्य सुरविप्रगुरून्यथास्वं पुनः मद्य की विशेषता। वृत्ति विधाय च समस्तपरिग्रहस्य । सुतीव्रमारुतब्याधिघातिनो लशुनस्य च । आपानभूमिमथ गंधजलाभिषिक्तामद्यमांसबियुक्तस्य प्रयोगः स्यात्कियान् गुणः माहारमंडपसीपगतां श्रयेत ॥ ७६ ॥ अर्थ-दारुण वातव्याधियों का नाश करने स्वास्तृतेऽथ शयने कमनीये वाला ल्ह सन मांस और मदिरा के बिना भृत्यमित्ररमणीसमवेतः। स्वं यशः कथकचारसंघैकै से गुण कर सकता है, अर्थात् मांस मदिरा रुद्धतं निशमयन्नतिलोकम् ॥ ७७ ॥ के अनुपान सेही ल्हसन वातव्याधियों को विलासिनीनां च विलासशोभि दूर करता है। गतिं सनृत्तं कलतूर्यधोषैः। कांचीकलापैश्चलाकंकिणीकैः मध के गुण । क्रीडाविहंगैश्च कृतानुनादम् ॥ ७८ ॥ निगूढशल्याहरणे शस्त्रक्षाराग्निकर्मणि । पीतमद्यो विषहते सुख वैद्यबिकत्थनाम् ॥ मणिकनकसमुत्थैरावनेयविचित्रैः सजलविविधलेखक्षोमवस्त्रावृतांगैः। अर्थ-गहरे गढेहुए शल्योंका निकालना अपि मुनिजनवित्तक्षोभसंपादिनीभिशस्त्रकर्म, क्षारकर्म और आग्निकर्म इन श्चकितहरिणलोलप्रेक्षणीभिः प्रियाभिः बैद्य कृत यंत्रणाओंको मद्यपान किया हुआ स्तननितंबकृतादतिगौरवारोगी सुखपूर्वक सहलेता है । दलसमाकुलमीश्वरसंभ्रमात् । इति गतं दधतीभिरसस्थितं मद्य को उत्कृष्टता। तरुणचित्त विलोभनकार्मणम् ॥ ८०॥ अनलोत्तेजनं रुच्य शोकश्रमविनोदकम् । । यौवनासवमत्ताभिर्विलासाधिष्टतात्मभिः। न चाऽतः परमस्त्यन्यदारोग्यबलपुष्टिकृत् ॥ संचार्यमाण युगपत्तन्वंगीभिरितस्ततः॥ अर्थ-मद्य के समान अग्निवर्द्धक, रु- तालवृतनलिनीदलानिलैः चिकारक, शोक और श्रमनाशक, तथा आ- शीतलाकृतमतीव शीतलैः। रोग्य, बल और पुष्टि करनेवाला और कुछ दर्शनेऽपि विधद्वशानुगं भी नहीं है। स्वादितं किमुत चित्तजन्मनः ॥ ८२ ॥ चूतरसेंदुमृगैः कृतवासं मध को पेयत्व । मल्लिकयोज्ज्वलया च सनाथम् । रक्षता जावितं तस्मात्पेयमात्मवता सदा। स्फाटिकशुक्तिगतंसतरंग आश्रितोपाश्रितहितं परमं धर्मसाधनम् ७५/ कांतमनगभिवोद्वहदंगम् ।। ८३ ॥ अर्थ-मद्य जीवन का रक्षक है इस तालीसाद्यं चूर्णमेलादिकं या ६८ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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