SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 760
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ० २० www. kobatirth.org शलाकया द्विदधीत लेपम् । कुठे किला से तिलकालकेषु मांसेषु दुर्नामसु चर्मकीले ॥ १७ ॥ शुड्या शोणितमोक्षैत्रिरूक्ष गैर्भक्षैणश्च चिकित्सितस्थान भाषाठीकासमेत । सक्तनाम् । ििश्वत्रं कस्यचिदेव प्रशास्यति क्षीणपापस्य ॥ अर्थ - भिलावा, चीतेकी जड, सेंहुडकी जड, आककी जड, चिरमिठी, त्रिकुटा, शंखका चूर्ण, तूतिया, कूठ, पांचोंनमक, दोनों खार, और कल्हारी, इन सब द्रव्यों को थूहर और आक के दूमें लोहे के पात्र में पका । जब गाढा होजाय तब उतार कर घरले | इस लेपको सलाई से लगावै । इससे कुछ, किलास, तिलकालक, अर्श, और चर्मकील नष्ट होजाते हैं । पापोंके क्षीण हो आनेपर किसी २ मनुष्य का श्वित्ररोग वमनंविरेचनादि शुद्धि, रक्तमोक्षण, विरूक्षण और सक्तुमक्षण से भी शांत होजाता है । इति श्वित्रचिकित्सा | कृमिचिकित्सा | "स्निग्धस्त्रिने गुडक्षीरमत्स्याद्यैः कृमिणोदरे उत्क्लेशितकृमिक के शर्वरीं तां सुखोषिते ॥ सुरसादिगणं मूत्रे काथयित्वा वारिणि । तं कषायं कणागालकृमिजित्कल्कयोजितम्। सतैलस्वर्जिकाक्षारं युज्याद्वस्ति ततोऽहनि । तस्मिक्षेत्र निरूढं तं पाययेत विरेचनम् ॥ त्रिवृत्कल्कं फलकणाकशयालोडितं ततः । ऊर्ध्वाध शोधितं कुर्यात्पचकोलयुतं क्रमम् ॥ कटुतिक्तकषायाणां कषायैः परिषेचनम् । काले विडगतैलेन ततस्तमनुवासयेत् ॥ अर्थ- जो पेटमें कीडे पडगये हों तो स्नेह ( ६६३). न और स्वेदन द्वारा रोगी के उदर को स्नि ग्व और स्विन्न करके गुड, दूध तथा मछली. आदिका भोजन कराके पेट के कीड़े और कफको स्थानसे च्युत करके रात्रि के समय रोगी को खाने के लिये कुछ भी न देयै । दूसरे दिन सुरसादि गणोक्त द्रव्यों को आधा पानी और आधा गोमूत्र मिलाकर स्वार्थ करले । इस क्वाथ में पीपल और वायविडंग का कल्क मिलाकर तथा तेल और सज्जीखार मिलाकर वस्ति देवें । फिर उसी दिन निः 1 रूहण के पीछेविरेचन करनेवाला निसोथ का कल्क और वमन करानेवाला मैनकल पीपल के काथमें मिलाकर देवै । इसतरह वमन विरेचन द्वारा रोगी के शुद्ध होनेपर पंचकोल समेत पेया और विलेपादि का पथ्य. देवै । तदनंतर कटु, तिक्त और कृपाय द्रव्यों के क्वाथ परिषेक करे । तदनन्तर अग्नि प्रदीप्त होनेपर वायविडंग के तेल से अनुवासन का प्रयोग करें । कृषिकी चिकित्सा | शिरोरोगनिषेधोकमाचरेन्मूर्धगेष्वनु ! उद्रिक्त तक कमल्पस्नेहं च भोजनम् ॥' अर्थ- जो मस्तक में कीडे पडगये हों तो शिरोरोग प्रतिषेधनीय अध्यायमें जो चिकित्सा कही गई है वही काम में लाये | तत्पश्चात् प्रति कटु और तिक्त रसान्वित थोडा घी डालकर भोजन करावै । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृमिरोग में पेयापान । बिडंगकृष्णामरिचपिप्पलीमूलशिशुभिः । पिवेत्सस्वर्जिकाक्षारं यवागूं तसाधिताम् अर्थ - बायविडंग, पीपल, कालीमिरच, For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy