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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टांगहृदय । ०२० भस्म करके तेल में मिलाकर लेप करने से | संवणे कारक लैप। श्वित्र रोम जाता रहता है । यह उपाय कुडवोवल्गुजवीजाद्वरितालचतुर्थमागसमिश्रः बहुत अच्छा है। | मूत्रेण गवां पिष्टः सवर्णकरणं परं श्विने। ___ अर्थ-वाकुची के बीज चार पल, हरिअन्य प्रयाग। पूतिः कीटो राजवृशोद्भवेन ताल एक पल इनको गोमूत्र में पोस कर लेप क्षाणातः श्वित्रमेकोऽपि हन्ति करने से देह का रंग एकसा होजाता है। - अर्थ-पूती नामक कीडे को अमलतास अन्य लेप । के क्षार में मिलाकर लेप करने से श्वित्ररोग क्षारे सुदग्धे गजलिंडजे च प्रशमित होजाता है । पूति एक प्रकार का गजस्य मूत्रेण परित्रते च । कीडा वर्षाऋतु में होता है, इसे पिलिंदाभी द्रोणप्रमाणे दशभागयुक्तं दत्त्वा पचेद्वाजमवल्गुजानाम् कहते हैं। श्वित्रं जयेच्चिकणतांगतेन भिलावे का प्रयोग। तेन प्रलिंपन्बहुशः प्रवृष्टम् । रात्रौ गोमूने चासितान जर्जरांगा- कुष्ठं मपी वा तिलकालकं वा नह्निच्छायायांशोषयेत्स्फोटहेतून् । यद्वा प्रणे स्यादधिमांसजातम् ॥ १५ ॥ एवं वारांस्त्रीस्तैस्ततः श्लक्ष्णपिष्टैः अर्थ-हाथी की लीदको अच्छी तरह स्नह्या क्षीरेण श्वित्रनाशाय लेपः जलाकर इस क्षार को एक द्रोण लेकर यथा अर्थ-फोडों को उत्पन्न करनेवाले भि योग्य हाथी के मूत्र में घोलकर क्षारकी रीति लावों को कूटकर रात में गोमूत्र में भिगो से इक्कीस बार छानले । इस छने हुए क्षार देवै । और दिन में इनको छाया में सुखाले जल में क्षारका दशमांश वाकुची का चूर्ण इस तरह गोमूत्र में भिगोना और छाया में मिलाकर पकावै । जब इस क्षार में चिकसुखाना तीनदिन तक करै । फिर इनको नाई आजाय तब उतार कर रखले । फिर थूहर के द्धके साथ अच्छी तरह पीसकर श्वित्र को खुरचकर अर्थात् किसी वस्त्रादि से महीन. करले और श्वित्र पर लगाता रहे, रिगड कर इस क्षार का बार बार लेप करे इससे श्वित्र नष्ट होजाता है । इससे चित्र नष्ट होजाता है । इस क्षार से - अन्य लेप। अक्षतैलकृतो लेपः कृष्णसर्पोद्भवा मपी। कुष्ठ, मस्से, तिलकालक और ब्रण का शिखिपित्त तथा धंहीबेरं वा तदाप्लतम | अधिमांस नष्ट होजाता है । .. अर्थ-काले सर्प के कोयले बहेडे के भल्लातकादि लेप। तेल में मिलाकर लेप करने से अथवा मोर भल्लातकद्वीपिसुधार्कमुलं के पित्ते का लेप करने से अथवा नेत्रवाला गुजाफलम्यूषणशंखचूर्णम्। को जलाकर बहेडे के तेल में मिलाकर लेप तुत्थं सकुष्टं लवणानि पंच .. क्षारद्वयं लांगलिकां च पफ्त्या ॥ १६ ॥ करने से श्वित्र नष्ट होजता है। स्नुगर्कदुग्धे धनमायसस्थं । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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