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भ.8
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
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सात दिनतक पीने से मस्से जाते रहते हैं। । की मंदता से ही उत्पन्न होते हैं । अग्नि
- शुष्क अर्शमें औषध । | के प्रदीप्त होनेपर इन रोगों की उत्पत्ति शुष्केषु भल्लातकमग्यमुक्तं
नहीं होसकती है । इसलिये इन रोगों में भैषज्यमा षु तु वत्सकत्वक् । सर्वेषु सर्वर्तुषु कालशेय
विशेष करके अग्निकी रक्षा करनी चाहिये। मर्शःसु बल्यं च मलापहं च ॥१६२॥ इतिश्री अष्टांगहृदयसहितायां भाषा
अर्थ-सूखी ववासीर में भिलावा, गीली टीकान्वितायां चिकित्सितस्थाने वबासीर में कुडाकी छाल ये प्रधान औषध अर्शश्चिकित्सितं नामाष्टमोहैं और गीली सूखी दोनों प्रकारकी बबासीर ऽध्यायः ॥ ८॥ ... में और संपूर्ण ऋतुओंमें तक प्रधान औषध हैं यह बलकारक और दोषनाशक होताहै। नवमोऽध्यायः
औषधविचार । "भित्त्वा विबंधाननुलोमनाय यन्मारतस्याऽग्निबलाय यच्च अथातोऽतीसारचिकित्सित तदन्नपानौषधमर्शसन
व्याख्यास्यामः। सेव्यं विवयं विपरीतमस्मात् । १६३ ।। अर्थ-अब हम यहांसे अतिसार चिकि
अर्थ-अर्शरोगी को उचित है कि सित नामक अध्याय की ब्याख्या करेंगे। उसी अन्नपान और औषध का सेवन करै अतीसार में लंघन । जो कफादिरूप मलकी विवद्धता का भेदन | "अतीसारो हि भूयिष्ठं भवत्यामाशयान्वयः करके वायु का अनुलोमन और अग्नि के हत्वाग्निं वातजेऽप्यस्मात्मा तस्मिल्लंघन
हितम् ॥१॥ बलको बढाताहै । तथा इससे विपरीत अर्थात्
| अर्थ-वहुधा अग्रिको मंद करके अतिवह अन्न, पान और औषध त्याग देना
सार रोग आमाशय में उत्पन्न होता है, चाहिये, जो मलकी विवद्धता, वायुका प्र
इसलिये वातज अतीसार में भी प्रथम उपतिलोम और अग्निका मांद्य करती है ।
वासरूप लंघन देना हित है । अपि शब्द अग्नि की रक्षा कर्तव्य । अतिसारग्रहणीविकाराः
से कफादिजन्य अतिसार में भी लंघन प्रायेण चान्योन्यनिदानभूताः।
हित है । प्राक् शब्द के प्रयोग से यह समझ. समेऽनले संति न संति दीप्ते ना चाहिये कि उत्तर काल में लंघन कराना रक्षेदतस्तेषु विशेषतोऽग्निम् “॥ हित नहीं है।
अथे-अशे, अतिसार और ग्रहणी ये । अतिसार में वमन । आपस में एक दूसरे के निदान हैं अर्थात् शूलानाहप्रसेकार्त वामयेदतिसारिणम् । एक रोगके होने पर दूसरा उत्पन्न होजाता अर्थ-जो रोगी शूल, पानाह और प्र. है । परन्तु विशेष करके ये सब रोग अग्नि | सेक से पीडित हो उसे वमन कराना हितहै।
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