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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org ( ५६२ ) दोषविशेष में पथ्यसेवन । दोषाः संनिचिता ये च विदग्धाहारमूर्छिता अतीसारायं कल्प्यते तेषूपेक्षेव भेषजम् । भृशोक्लेशप्रवृत्तेषु स्वयमेव चलात्मसु । अर्थ- जो दोष अत्यंत वृद्धि को प्राप्त होगये हैं, तथा विदग्ध अर्थात् पक्कापक्क आहार से मिलाकर अतिसार उत्पन्न करते हैं उन सब उत्क्लेशजनक अर्थात् अतिसार से उउपन्न करने में समुद्यत और विना ही यत्न चलने में प्रवृत हुए दोषों में पाचनादि किसी औषधका प्रयोग न करके केवल पथ्य अर्थात् हितकारी आहार का ही सेवन कराना चाहिये । अष्टहृदय | संग्राही मौषध का निषेध | • प्रयोज्यं नतु संग्राहि पूर्वमामातिसारिणि । अर्थ - अतिसार की पहिली अवस्था में संग्राही औषध देना उचित नहीं है । विबद्ध दोष में चिकित्सा | अपि चाध्मानगुरुता शूलस्तै मित्यकारिणि ॥ प्राणदा प्राणदा दोषे विवद्धं संप्रवर्तिनी । अर्थ - मलके बिबद्ध होने पर अर्थात् थोडा थोडा करके निकलने के कारण उदर में अफरा, भारापन, शूल और स्तिमिता उत्पन्न हो तो मलको प्रवृत करनेवाली हरीतकी प्राणों को देनेवाली होती है । मध्यदोषातिसार में चिकित्सा | पिवेत्प्रक्वथितांस्तोये मध्यदोषो विशोषयन् ॥ भूतीपिप्पलीशुठीवचाधान्यहरीतकीः । अथवा विल्वधनिकामुस्तानागरवालकम् ॥ विडपाठावचापथ्याकृमिजिम्नागराणि वा । शुठीघनवचामाद्रीबिल्ववत्सकहिंगु वा ॥ अर्थ - मध्यदोषवाला अतीसार रोगी लं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० घन करता हुआ कंजा, पीपल, सोंठ, बच, धनियां और हरड, इनका काढा बनाकर पीवै । अथवा बेलगिरी, धनियां, मोथा, सोंठ और नेत्रवाला अथवा विडनमक, पाठा, वच, हरड, बायबिडंग और सोंठ अथवा सोंठ, नागरमोथा, बच, अतीस, बेलगिरी, कुडा और हींग इन चार प्रयोगों में से किसी एक को पीसकर और प्रमध्यारूप काढा बनाकर पीना चाहिये । 'प्रकथितायां ' : प्र शब्द लगाने का यह तात्पर्य है कि प्रकर्ष करक अर्थात प्रमध्यारूप से काढा बनाया जाय । प्रमध्या के लक्षण अन्यग्रन्थ में इस तरह लिखे हैं "शतः कषायो निर्यूहः क्वाथो यूषः कृतश्चसः । कृतयूषः प्रमथ्या च द्रव्यात्कल्की कृताच्छ्रुतः” । अल्पदोषातिसार में कर्तव्य । शस्यते त्वल्पदोषाणामुपवासोऽतिसारिणाम् अर्थ - अल्पदोषवाले अतिसार रोगीको लंघन कराना हित है । यहां तु शब्द अवधारणार्थ है अर्थात् अल्पदोष में केवल लंघनही हित है, वहुदोष और मध्यदोष में कही हुई चिकित्सा की आवश्यकता नहीं है । वचादि पक्व जल | वचाप्रतिविषाभ्यां वा मुस्तापर्पटकेन वा ॥ ड्रीवेरनागराभ्यां वा विपक्कं पाययेज्जलम् । For Private And Personal Use Only अर्थ - अतिसार रोग में तृषा उत्पन्न होने पर दोष, देश और कालादि की विवेचना करके कभी बच और अतीस, कभी नागरमोथा और पित्तपापडा, कभी नेत्रवाला
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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