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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४४) अष्टांगहृदये। ५ अ० रोपणकर्ता तथा वातल है । यह रूक्ष क- शीधूता से प्रवेश करने वाला), उष्ण वीर्य पाय और मधुर होता है । मधु से वनाई | तथा कफ को उत्पन्न न करने वाला है । हुई शर्करा मधु के समान गुणयुक्त * कृश ( दुवले ) मनुष्य को स्थूल और होती है । स्थूल को कृश करने से लिये तैल उत्तम उष्णमधु के गुण । पदार्थ है । मल को कड़ा करता है, कीड़ों उष्णमुष्णातमष्णे च युक्तं चोष्णनिहंति तत।। का नाश करता है । और जो तैल अन्य अर्थ-गर्म शहद पीने से, वा स्वयं । औषधों के संस्कार से तयार किया जाता है अग्न्यादि से तापकर, अथवा उष्णदेश, उ. वह सब प्रकार के दोषों का नाश करने ष्णकाल वा उष्ण द्रव्यों के संयोग में शहद का सेवन मृत्यु कारक होता है । अरंडी के तेल का गुण | सतिक्तोषणमैरंडं तैलं स्वादु सरं गुरु । शहद का विधान। वर्मगुल्मानिलकफानुदरं विषमज्वरम् ५८॥ प्रच्छर्दने निरूहे च मधूष्णं न निवार्यते। | रुक्शोकोच कटीगुह्यकोष्टपृष्ठाश्रयो जयेत् । अलब्धपाकमाश्वव तयोर्यस्मान्निवर्तते ५५॥ अर्थ-अरंडी का तेल कुछ कड़वा और अर्थ वमनऔर निरूहणब स्तमेंउष्णमधु | तीखा होता है । वह मधुर, विरेचक और वर्जित नहीं हैं, क्योंकि इन दोनों कम्मोम भारी भी होता है। बर्धा रोग, गुल्म रोग, मधु पकने नहीं पाता है शीघ्रही बाहर निक ल आता है। ___ + यहां प्रष्ण उठता है कि एक ही तैलवर्ग: वस्तु स्थूलताकारक और कृषताकारक कैसे हो सकती है । इसका समाधान इस तैल के सामान्य गुण तरह है कि कृश मनुष्य के स्रोत रुकजाते तैल स्वयोनिवत्तत्र मुख्यं तीक्ष्णं व्यवायिच। हैं और उन में तेल के सिवाय और कोई त्वग्दोषकृदचक्षुष्यं सूक्ष्मोणं कफन्न च ५६ | वृहणकर्ता पदार्थ प्रविष्ट नहीं हो सकता कृशानां बृंहणायालं स्थूलानां कर्शनाय च । है। तीक्ष्णदि गुणों से युक्त होने के कारण बद्धविट्कं कृमिघ्नं च संस्कारात्सर्वदोषजित् तेल प्रविष्ट होकर सोतों को खोल देता है अर्थ-जिन जिन द्रव्यों से तेल निकलता और सोतो के शुद्ध होने से शरीर पुष्ठ है उन उन द्रव्यों के संपूर्ण गुण उस तेल होने लगता है कहा भी है । स्त्रोतःसुतत्र शुद्धेषु रसोधातूनुपतियः । तेनतुष्टिलिंवमें भी होते हैं। सब प्रकार के तलों में तिल र्णः परंपुष्टिश्चजयाते ॥ तथा स्थूल व्याक्त का तेल प्रधान होता है । यह तीक्ष्ण, के सूक्ष्म सोतों में प्रवेश करके अपने तीन्यबायि । व्याप्त होने वाला । पीने से क्षणादि गुणों से मेदा को क्षीण करता है त्वचाके दोषों को नाशकरने वाला, नेत्रों को | और मेदा के क्षीण होने से कृशता होती | चली जाती है इस तरह तेल में दोनों · अहित, सूक्ष्म । सूक्ष्म छिद्रों में गुण है ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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