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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ०१२ www. kobatirth.org उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । का तु निः प्रभै प्रदीपाद्यैरिवान्वितम् ॥ सिताभा सा च दृष्टिः स्याल्लिंगनाशे तु लक्ष्यते मूर्तः कको दृष्टिगतः स्निग्धो दर्शननाशनः विदुर्जलस्येव चलः पद्मिनीपुटसंस्थितः । उणे संकोचमायाति छायायां परिसर्पति शंख कुंदै कुमुदस्फटिकोपमशुक्लिमा । अर्थ-कफजतिमिर रोग में रोगी प्रायः स्निग्ध और श्वेतवर्ण वस्तुओं को देखता है और उसे शंख, चन्द्रमा, कुन्दपुष्प और कमो. दनी के सह व्याप्त दिखाई देता है । काच रोग में प्रभारहित चन्द्र, सूर्य और दीपक से ब्याप्त सा दिखाई देता है | लिंगनाश में दृष्टि शुभ होजाती है । दृष्टिगत कफ कठोर, स्निग्ध और पद्मिनीपत्र के ऊपर जलविन्दु सदृश चंचल होजाता है, यह कफविन्दु धूप में संकुचित और छाया में फैलनेवाला हो जाता हैं । तथा शेख, कुंद, इंदु, कमोदनी, और स्फटिक के समान सफेदी होजाती हैं । रक्तपित्त के लक्षण । के ( ७८५ ) हैं। रोगी द्वंद्वज और सान्निपातिक तिमिर रोग में बिनाकारण ही अस्पष्ट रूप से पदार्थों को देखने लगता है । तिमिररोग में तथा काचरोग और लिंगनाश में दृष्टिमें विचित्र रोग पैदा होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नकुलां के लक्षण | द्योत्यते नकुलस्येवयस्य द्वङ् निचिता मलैः नकुलांधः स तत्राह्नि चित्रं पश्यति नो मिशि अर्थ-- जिस रोगी की दृष्टि दोषतमूहों द्वारा व्यथित होकर नकुल की दृष्टि के समान देदीप्यमान होजाती है वह नकुलांध कहलाता है, नकुलान्धरोग में रोगी को दिनमें विचित्र पदार्थ दिखाई देते हैं, परन्तु रात में दिखाई नहीं देता है । दिवादर्शन में युक्ति | रक्तेन तिमिरे रक्तं तमोभूतं च पश्यति कांचनरक्तकृष्णा वा दृष्टिस्तादृकू च पश्यति लिंगनाशेऽपि तादृग्दृइ निःप्रभाहतदर्शना अर्थ- रक्तज तिमिररोग में रोगी रक्त के सदृश वा अंधकार के समान देखता है, काचरोग से दृष्टि लाल वा काठी होजाती है । लिंगनाश में दृष्टि रक्त वा कृष्णवर्ण तथा नाहीत और हतदर्शन होजाती है । संसर्गजतिमिर के लक्षण | संसर्गसन्निपातेषु विद्यात्संकीर्णलक्षणान् । तिमिरादीन कस्मा चतैःस् :स्यादूव्यक्ताकुलेक्षणम् तिमिरे शेषयोर्हष्टौ चित्रो रागः प्रजायते । अर्थ--संसर्गज और सन्निपातज तिमिररोग में उपरोक्त सब लक्षण मिले हुए होते | १९ अर्कैस्त मस्त कन्तस्तगभस्तौ स्तंभमागताः स्थगयंति दृशं दोषा दोषांधः स गदोपरः । दिवाकरकरस्पृष्टा भ्रष्टा दृष्टिपथान्मलाः २५ विलीनलीना यच्छति व्यक्तमत्रान्हि दर्शनम् अर्थ - जब सूर्य की रश्मि अस्ताचल के मस्तक पर पहुंच जाती हैं अर्थात् जब दिन अस्त होने लगता है तब संपूर्ण दोष स्तंभित होकर दृष्टि का आच्छादन करलेते हैं, इसको दोषांध वा रतौंध कहते हैं । और सूर्य की किरणों के स्पर्श से भ्रष्ट हुए दोष दृष्टिपथ को छोडकर विलीन होजाते हैं, इसलिये ऐसे रोगी को दिनमें स्पष्ट दिखाई देने लगता है । उष्णविदग्धा दृष्टि | उष्णततस्य सहसा शीतवारिनिमज्जनात् दाहोषे मलिन शुरु महन्या विलदर्शनम् त्रिदोषरक्तसंयुक्तो यात्युष्मोर्ध्वं ततोऽक्षिण रात्रावांध्यं य जायेत विदग्घोष्णेन सा स्मृता For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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