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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९३४) माष्टांगहृदय । म. ३१ पावै। दंशस्थान में रहते रहते दंशस्थान को कतर | दंशदहनादि ॥ डाले, इस काममें बहुत शीघ्रता करनी चा-दंश मंडलिना मुक्त्वा पित्तलस्वादथापरम् हिये जिससे विष की बेल देहमें न फैलने प्रतप्तैमलोहाचैर्द हेदाशूल्मुकेन वा ४५ . करोतिभस्मसात्सद्योवहिःकिंनाम न क्षणात् दष्टपुरुष का कर्तब्य ॥ अर्थ-मंडली सॉं की प्रकृति पैतिक दष्टमात्रो ददाशु तमेव पवनाशिनम् । । होती है, इनके दंशमें अग्निका प्रयोग करने लोष्टमहीवादशनश्छित्वाचाऽनु ससंभ्रमम् से अनर्थ होजाता है। अन्य सपोके दंशमें मिष्ठोबेन समालिंपेइंशं कर्णमलेन वा। अग्नि से प्रतप्त किये हुए सुवर्ण वा लोहे - अर्थ--जिस सर्पने काटा हो उसी सर्पको | आदि किसी धातुसे अथवा जलते हुए तत्क्षण इसा हुआ आदमी काट खावै ।। कोयलों से दग्ध करदेना चाहिये । अग्नि अथवा लोष्ट वा भूमिको दंश द्वारा छेदन | संपर्ण बस्तुओं को जलाकर शीघ्र भस्म कर करके शीघ्रही उस थूक से दंशस्थान पर देती है, फिर यह क्षतस्थ विषको शीघ्र लेपन करदे । अथवा घाव पर कान का मैल भस्मीभूत करदेती है, इसमें आश्चर्य ही लगाने से भी विष नष्ट होजाता है। क्या है। दंशस्थान पर बंधन ॥ दंशस्योपरि बध्नीयादरिष्टां चतुरंगुले। अगद से बारबार लेपन । क्षौमादिभिणिकया सिद्धर्मत्रैश्च मंत्रवित् आचूषेत्पूर्णवक्त्रो वा मृद्भस्मागदगोमयैः अंषुवत्सेतुबंधेन बंधन स्तभ्यते विषम् ।। प्रच्छायांतररिष्टायां मांसलं तु विशेषतः । न वहंतिसिराश्चाऽस्यविषं बंधाभिपीठिताः अंगं सहैव दंशेन लेपयेदगदैर्मुहुः ॥४७॥ अर्थ-दंशस्थानके चार अंगुल ऊपर रेशमी चंदनोशीरयुक्तेन सलिलेन च सेचयेत् । आदि वस्त्रसे वा वेणीसे पट्टी बांधदेवे और सिद ____ अर्थ-जो पित्तकी अधिकतावाले सर्पने मंत्रों को पढ़ पढ कर फंक मारदे । जैसे बंद / काटा हो तो बंधनों के बीचमें पछने लगाबांधने से पानी रुक जाता है वेसेही बंद वां- कर मुखमै मृतिका, भस्म,विषनाशक औषध धनेसे विष भी रुकजाताहैं । बंद लगादेने से | वा गोवर भरकर दंशस्थान को चूसना सिराओं में रुधिरका दौडना बन्द होजाताहै। चाहिये । यदि देशस्थानका मांसपुष्ट हो तो - दंशका उद्धरण || बिशेषकरके चूसना चाहिये, तथा दंशस्थान निष्पीडयानूद्धरेइंशं मर्मसंध्यगतं तथा का बार बार विषनाशक औषधियों से लेपन नजीयंते विषावेगो बीजनाशादिवांऽकुरः | करना चाहिये । तथा चंदन और खसके : अर्थ-तत्पश्चात् चारों ओर से भींचकर | जलसे देहको सेचन करे। मर्मस्थान को छोडकर अन्यत्र सब जगह से विषफैलने पर मिराव्यध । शस्त्रद्वारा दंशको निकाल कर फैकदे, ऐसा | विषे प्रविस्ते विध्यत्सिरांसा परमा क्रिया करनेसे विषका आवेग रकजाता है, रक्ते निढियमाणे हि कृत्स्नं निङ्घियते विषम् जैसे बीजका नाश होनेसे अंकुर नहीं जमताहै। अर्थ-विषके देहमें फैलने पर सिराका For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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