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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ० ३६ www. kobatirth.org उत्तरस्थान भाषा टीकासमेत । के पूजास्थान में, पंचमी अष्टमी और नवमी तिथियों में, पक्षकी संधिमें, सायंकाल वां आधीरात वा दुपहर के समय, भरणी, कृत्तिका, मघा, श्लेषा, विशाखा, पूर्वाफाल्गुन और मूल नक्षत्रों में सूर्यास्त और सूर्योदय के समय, तथा मर्म स्थान में सर्प से काटा हुआ मनुष्य असाध्य होता है । काटते ही यदि रोगी का मुख और आंख सफेद पडजांय, सिरके बाल गिरपडें, जिवा अकड जाय, बार बार मूच्छी हो और ठंडा श्वास चलने लगे तो समझलेना चाहिये कि यह रोगी न जीवेगा। अन्य लक्षण | हिध्मा श्वासोवमिः कासोदष्टमात्रस्य देहिनः जायंते युगपद्यस्य स हृच्छूली न जीवति । अर्थ-सर्प के काटते ही हिचकी, श्वास, वमन, और खांसी जिसके एक साथ उत्पन्न होजांय और हृदय में शूल होने लगे तो वह रोगी नहीं जीता है । अन्य लक्षण | | फेनं वमति निःसंशः श्यावपादकराननः । 'नाeावसादो मंगोंगे विक्लेदः संधिता विषपीतस्य दष्टस्य दिग्वेनाभिहतस्य च भवत्येतानि रूपाणि संप्राप्ते जीवितक्षये । अर्थ - जिसने विष पान किया हो, जिसको सर्पने काटा हो, जो विष लिप्त शस्त्र से विद्वहो, वह ज्ञाग डालने लगे, वेहोश होजाय उसके हाथ पांव और मुख काले पडजांय, नासिका टेढी पडजाय वा बैठजाय, अंगभंग होजाय, मल फटजाय और संधियां शिथिल होजांय तो जानलेना Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९३३ ) चाहिये कि इस मनुष्य की मृत्यु निकट आ पहुंची है । अन्य लक्षण | ननस्यैश्चेतना तीक्ष्णैर्न क्षतात्क्षतजागमः दंडाहतस्य नोराजिः प्रयातस्य यमांतिकम् अर्थ- जिस विषपीडित रोगी को तीक्ष्ण नस्य देने से भी हे श न हो, देह में घाव करने से रुधिर न निकले, लकडी से मारने पर देह पर चिन्ह न हो तो जान लेना चाहिये कि इस रोगी की मृत्यु निकट आ पहुंची है। विषकी शांति में शीघ्रता । अतोऽस्यथा तु त्वरया प्रदीप्तागारवद्भिषक् रक्षन् कंठगतान् प्राणान् विषमाशुशमं नयेत् अर्थ--इन उक्त लक्षणों से विपरीत लक्षणोंके होनेपर अर्थात तीक्ष्ण नस्य के प्रयोग सेहोश होने पर, घाव से रुधिर निकलने पर लकडी का चिन्ह होने पर कंठगत प्राणों की विषसे ऐसी शीघ्रतापूर्वक रक्षा करनी चाहिये जैसे जलते हुए घर की अग्नि से रक्षा करने के लिये प्रयत्न में शीघ्रता की जाती है । विषके फैलने का काल | मात्राशतं विषं स्थित्वा दंशे दष्टस्य देहिनः देहं प्रक्रमते धातून् रुधिरादीन् प्रदूषयत् । अर्थ - काटे हुए पुरुषके दंशस्थान में सौ मात्रा काल तक विष ठहर के देह में फैलने लगता है और रुधिरादि धातुओं को दूषित करदेता है । For Private And Personal Use Only देशका उत्कर्तन | एतस्मिनंतरे कर्म दंशस्योत्कर्तनादिकम् । कुर्याच्छीघ्रं यथा देहेविषवल्ली न रोहति । अर्थ- - इसी अवसर में अर्थात् बिषके
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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