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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. ३१ .. उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । (९३५ ) वेधन करके रक्तमोक्षण करना चाहिये ।। स्कन्नरुधिर में शांति । इसमें रक्तमोक्षण उत्तम चिकित्सा है,क्योंकि स्कन्ने तु रुधिरे सद्यो विषवेगः प्रशाम्यति रक्तके निकलने के साथसाथ विषभी निकल अर्थ-रुधिर के निकल जाने पर विषका जाता है। वेग शीघ्र शांत हो जाता है। सविषरुधिर के लक्षण । विषशांत होनेपर घृतपान । दुर्गधं सविषं रक्तमग्नौ चटचटायते ४९। | विषं कर्षति तीक्ष्णत्वात् हदयं तस्यगुप्तये यथादोषं विशुद्धं च पूर्ववल्लक्षयेदसकू। पिवेघृतं घृतक्षौद्रमगदं वा घृताप्लुतम् । अर्थ-सविषरुधिर दुगंधित होता है, हृदयावरणे चाऽस्य श्लेष्मा हृद्यपचीयते ॥. अग्निमें डालने से इसमें से चट चट शब्द । अर्थ--विष तीक्ष्ण होने के कारण हृदय निकलता है। विशुद्धरक्त दोषानुसार पूर्ववत् को खींचता है। इसलिये हृदय की रक्षा सिराव्यधविधि अध्याय में कहे हुए लक्षणों के लिये घी, शहत और घी अथवा घृताळु त द्वारा जाना जाता है। औषध पान करना चाहिये, इस रोगी के __ अदृश्यसिराओं से रक्तमोक्षण | हृदय का आवरण होने पर हृदय में कर्फ सिरास्वदृश्यमानासु योज्याः शृंगजलौकसः इकट्ठा होजाता है । अर्थ-शोथादि द्वारा यदि सिरा दिखाई विषात को वमन । न देती हो तो सींगी वा जोक लगाकर रक्त | प्रवृत्तगौरवोत्क्लेशहलासं वामयेत्ततः। निकालना चाहिये। द्रवैः कांजिककौलत्थतेलमद्यादिवर्जितः ॥ सुतशेषरक्तका स्तंभन । वमनैर्विषहद्भिश्च नैवं व्यानोति तद्वपुः ।' शोणितं सुतशेषं च प्रविनिं विषोषणा अर्थ-विष पीडित रोगी को गुरुता, लेपसेकैस्तु बहुशः स्तंभयेभृशशीतलैः। उक्लेश और वमन वेग उपस्थित होने पर __ अर्थ-विषकी गरमी के कारण टपकने | कांजी,कुलथी, तेल और मद्यादिको छोड़कर से बचे हुए और प्रवलीन रक्तको बार बार अन्य विषनाशक औषधियों द्वारा वमन शीतल लेप और परिषेक द्वारा रोकना उचित है । कराना चाहिये, बिषनाशक वमनों के कारण _____ अस्कन्नादि रक्तमें मूच्र्छा। विषदेह में व्याप्त नहीं हो सकता है ॥ अस्कन्ने विषवेगाद्धि मू यमदहद्रवाः । मुजंगदोषाचनुसार किया। भवति तान् जयेच्छीत/जेच्चारोमहर्षतः भुजंगदोषप्रकृतिस्थानबगविशेषतः॥५६ ॥ जो रुधिर न निकाला जाय तो विषके | सुसूक्ष्म सभ्यगालोच्य विशिष्ठां चावेग से मुछी, मद और हृदयद्रव उपस्थित ऽऽचरेक्रियाम् । होते हैं । इसलिये शीतल प्रलेप और परिषे गरपति अर्थ-सर्प की जाति, दोष, प्रकृति, कादि द्वारा इन सब रोगोंको शांत करके । दष्टस्थान और विषका वेग इन सब बातों जब तक रोमांच खडे न हों तब तक ठंडे पर बहुत सूक्ष्म रूप से विचार करके पंखे से हवा करता रहै । | चिकित्सा करनी चाहिये ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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