SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 980
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ. २८ उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । (८८३) । अष्टाविंशोऽध्यायः। | और गुदा को बिदीर्ण कर देता है और छोटे छोटे छिद्रोंमें होकर अधोवायु, मूत्र, विष्टा और वीर्य निकलने लगता है। अथाऽतो मगदरप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः । भगंदर के भेद । अर्थ-अब हम यहां से भगंदर प्रतिषेध दोषैः पृथग्युतैः सर्वैरागंतुःसोधमः स्मृतः ॥ मामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे । ___ अर्थ-भगंदर आठ प्रकार का होता है, भगंदर के लक्षण । | यथा-वातज, पित्तज, कफन, वातपित्तज, इस्त्यश्वपृष्ठगगनकठिनोत्कटकासनः।। | बातकफज, पित्तकफज, सन्निपातज और अशॉनिदानाभिहितरपरैश्च निषेवितैः॥ अनिष्टादृष्टपाकेन सद्यो वा साधुगर्हणैः।। आगन्तुज । प्रायेण पिटिकापूर्वो योगुले चंगुलेऽपि वा ॥ पिटिका और भगंदर का अंतर । पायोगीताह्यो या दुष्टासृङमांसगो भवेत् अपकं पिटिकामाहुः पाकप्राप्तं भगंदरम् । वस्तिमूत्राशयाभ्यासगतत्वात्स्पंदनात्मकः। अर्थ-गुदाके पासवली सूजन जब तक मगदरः स ___ अर्थ-हाथी और घोडे की पीठ पर चढ. नहीं पकती है तब तक उसे पिटिका वा कर च ठने से, कठोर और उत्कट आसनों फुसी कहते हैं, पकनेपर उसे भगंदर कहते हैं पर बैठने से, अनिदान में कहे हुए हेतु. भगंदरजनकपिटिका । ओं से वा ऐसेही अन्य कारणों से, पूर्वजन्म | गूढमूलांससंरंभांरुगाठ्यां रुढकोपिनीम् ॥ भगंदरकरी विद्यात् पिटिकां न त्वतोऽन्यथा में किये हुए अशुभ पापोंके फलसे, साधुओं अर्थ-जिस पिटका की जड गहरी होती की निंदासे, गुहासे एक वा दो अंगुल दूर है, जो क्षोभयुक्त, वेदनान्वित और होते है। पर बाहर वा भीतर को दूषित रक्त और प्रकोपक हो उसे ही भगंदर को उत्पन्न करमांस में एक व्रण हो जाता है, इसी को भगं- नेवाली पिाटेका सगझनी चाहिये, इससे विपदर कहते है | भगंदर होने से पहिले प्रायः । रीत लक्षणवाली केवल पिटिका कहलाती है कुंती उत्पन्न होती है, यह फुसी पककर वातज पिटिका के लक्षण । फूट जाती है तभी भगंदर होता है । तथा तत्र श्यावारुणा तोदभेदस्फुरणरकरी ॥ वस्ति और मूत्राशय के समीपवर्ती होने से पिटिका मारुतात् झरने लगता है। ___ अर्थ-निस पिटिका का वर्ण श्याव और भगंदर की क्रिया। अरुण हो तथा जिसमें सुई छिदने की सी सर्वश्च दारयत्यक्रियावतः। पीडा, भेदन, फडकन और चबके चलते हों भगवत्तिगुस्तेषु दीर्यमाणेषु भूरिभिः ॥ उसे वातज पिटिका जाननी चाहिये । वातमूत्रशकच्छुकं स्वैः सूक्ष्मैषमति क्रमात् | पित्तज पिटिका के लक्षण अर्थ-सम्यक् रीतिसे चिकित्सा न किये । पित्तादुष्टग्रीवावदुच्छ्रिता। जाने पर भगंदर सब तरह से भग, वस्ति । रागिणी तनुरुष्माढ्या स्त्ररधूमायनान्विता For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy