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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६४६ ] अष्टांगहृदय । 'मा १८ कफविसर्प पर लेप । | अत्यर्थशीतास्तनबस्तनुवस्त्रांतरास्थिताः ॥ त्रिफलापनकोशीरसमंगाकरवीरकम् ॥ योज्याःक्षणेक्षणेऽन्येऽन्ये मंदवीर्यास्तएबच नलमूलान्यनंता चलेपःश्लेष्मबिसर्पहा । । अर्थ--विसर्परोगहें आमयुक्त वायु यदि - अर्थ-त्रिफला, पद्माख, खस, मजीठ, कफके स्थानमें वा पित्तके स्थान में गत हो कनेर, नरसल की जड, और अनन्तमूल तो कुछ गरम और कुछ रूखे लेपोंमें घी इनका लेप करनेसे कफजविसर्प नष्ट हो मिलाकर काम में लाना चाहिये । इसीतरह जाताह । यदि रक्तपित्त पित्तस्थान में गया हो तो अन्य लेप. । अत्यन्त शीतल और पतला लेप पीडित स्थाधवसप्ताहखदिरदेवदारुरंटकम् ॥ १५ ॥ नपर एक बहुत पतला कपडा विछाकर भर समुस्तारग्वधं लेपोवो वा वरुणादिकः। बार करना चाहिये । परन्तु यह लेप हरबार आरग्वधस्य पत्राणि त्वचः श्लेष्मांतकोद्भवाः नया होना चाहिये क्योंकि पहिला किया इंद्राणीशाकं काकाहाशिरीषकुसुमानि च । ___अर्थ--धायके फूल, सातला, खैर, देव. हुआ मन्दवीर्य होजाता है। दारू कुरंटक, नागर मोथा और अमलतास । संसृसृ दोष में कर्तव्य । इन द्रव्यों का लेप अथवा वरुणादिगणोक्त संसृष्टदोषे संसृष्टमेतत्कर्म प्रशस्यते ॥ २० द्रव्योंका लेप अथवा अमलतास के पत्ते, अर्थ-मिले हुए दो दो दोष वा तीनों लिहसौडे की छाल, इन्द्रायण, शाकबृक्ष, दोषवाले विसर्प में तीनों वा दो दो दोषोंकी मकोय और सिरस के फूल इनका लेप हितहै। मिली हुई चिकित्सा करनी चाहिये । उक्तद्रव्यों द्वारा सेकादि । अग्नि विसर्प की चिकित्सा । सेकवणाभ्यंगहविलेपचूर्णान् यथायथम ॥ शतधौतघृतेनाऽग्निं प्रदिह्यात्केवलेन वा। एतैरेवौवधैः कुर्याद्वायौ लेपा घृताधिकाः ॥ सेचयेद्धृतमंडेन शीतेन मधुकांबुना ॥ शीतांभसांभोजजलैः क्षीरेणेक्षुरसेन वा। अर्थ--ऊपर जिन जिन द्रव्यों का लेप पानलेपनसेकेषु महातिक्तं परं हितम् ॥ . कहा गयाहै उन्हीं औषधियों द्वारा सिद्ध ___ अर्थ--अग्निविसर्प में सौ बार धुलाहुआ जलसे परिषेक, उन्हीं द्रव्यों द्वारा सिद्ध घृत | घी, वा केवल घृतमंड अथवा मुलहटी का का घाव पर मर्दन, तथा वातविसर्पोक्त । शीतल काथ, कमल का जल, दूध द्रव्यों में अधिक घी मिलाकर लेप करना । वा ईख का रस, इनका परिषेक करे । और ये सब हितहैं । तथा पित्तज और कफज | महातिक्तक घृतको पान लेपन और परिषेक विसर्प में जो जो लेप कहे गये हैं वे भी | में काम में लाये । धी में मिलाकर लगाने चाहिये । ग्रंथि विसर्प की चिकित्सा। . ... सामवायुमें लेप। .. ग्रंथ्याख्ये रक्तपित्तघ्नं कृत्वाकफस्थानगते सामे पित्तस्थानगतेऽथवा ॥ - सम्यग्यथोदितम् । आशीतोष्णा हिता लक्षारक्तपित्ते घृतान्विताः कफानिलघ्नं कर्मेष्ट पिंडस्वेदोपनाहनम् ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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