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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८०८) अष्टांगहृदप । म. १६ ___ अर्थ-सफेद लोध और मुलहटी को घी । किन्तु दाह होने पर दूध और घी मिलाकर में भूनकर महीन पासले, इसको पोटली में | शीतल लेप करना चाहिये । बांधकर स्त्री के दूध मलकर इस दूधको तिमिरादि में ययायोग्य चिकित्सा । मेत्रोंमें निचौडे। इससे पित्तरक्तज और अभि. तिमिरप्रतिषेधं च वीक्ष्य युंज्याद्यथायथम् । घातज अभिष्यन्द नष्ट हो जाता है । अयमेव विधिः सर्वो मंथादिष्वपि शस्यते - कफाभिष्यंद की औषध ।। अर्थ-तिमिररोग को दूर करने के निमित्त दोषादि का विवार करके चिकित्सा नागरत्रिफलानिंबवासारोधरसः कफे। कोष्णमाश्चोतनं करनी चाहिये । मंथादि रोगों में उक्त संपूर्ण ___ अर्थ-कान अभिष्यन्दमें सोंठ, त्रिफला विधि हितकारक हैं। नीम, अडूमा, और लोध इनके काढेका ईष भ्रवादि दाह। दुष्ण अवस्था में आश्चोतन करे। अशांती सर्वथा मंथे भ्रवोरुपरि दाहयेत् । त्रिदोषज अभिष्यंद में कर्तव्य। । अर्थ-उक्त उपार्यों के करने पर भी मित्रैर्भेषजैः सान्निपातिके। यदि मंथरोग की शांति न हो तो भकुटियों अर्थ-सान्नितिक अभिष्यंदमें पात- | के ऊपर दाह करना चाहिये । जादि अभिष्यंदों में कही हुई सब प्रकार की वातादिरोगनाशिंनी वर्ति । मिली हुई चिकित्सा करनी चाहिये । रूप्यं रूक्षेण गोदना लिंपेन्नीलत्वमागते । ___अन्य प्रयोग । शुष्क तुमस्तुना पर्तिर्वाताख्यामयनाशिनी सर्पिःपुरागं पवने पित्ते शर्करयान्वितम् । । अर्थ-चांदी के पत्रपर नवनीत निकाळे व्योषसिद्धं कफे पीत्वा यवक्षारावर्णितम हुए गौके दही का लेप करे, जब यह नीला स्रावयेगुधिरं भूयस्ततः स्निग्धं विरेचयेत्। होजाय और सूखजाय तब उस दही की अर्थ-वात अभिष्यंदमें पुगना घृत और बत्ती बनाकर प्रयोग करे इससे वातसंबंधी पित्तनमें शर्करायुक्त घृत हितकारी है । नेत्ररोग जाते रहते हैं । कफन अभिष्यंद में त्रिकुटा के साथ घी को पित्तरक्तनाशिनी वत्ती । पकाकर उसमें जवाखार मिलाकर उस घी सुमनः कोरका शंखत्रिफला मधुकं बला। को पान कराके रक्तमोक्षण करे । पीछे स्निग्ध पित्तरक्तापहा वर्तिः पिष्टा दिव्येन वारिणा विरेचन का प्रयोग करे । ___ अर्थ-चमेली के फूल की कली, शंख, . . लेपादि प्रयोग । त्रिफला, मुलहटी और खरैटी इनको वर्षा आनूपवेसवारण शिरोवदनलेपनम् १९ के जल में पीसकर बत्ती बनाकर प्रयोग उष्णेन शूले दाहे तु पयः सपियुतैहिमैः ।। करने से पित्तरक्त ज नेत्ररोग जाते रहते हैं । ___ अर्थ-अभिष्यंदरोग में शूल के समान । कफाक्षिरोगनाशिनी वर्ती । वेदना होनेपर आनूप मांसके वेसवार को मंच त्रिफला ब्योषं शंखनाभिः समुद्रजः। कुछ गरम करके सिर और मुखपर लेपकरे। फेनः शैलेयकं सों वर्तिः श्लेष्माक्षिरोगनुस् For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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