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अ० १६
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(८०७)
सेकोष्टभागाशिष्टः
: क्वाथः सशर्करः शीतः सेंचनरक्तपित्तजित् क्षौद्रयुतः सर्वदोषकुपिते नेत्रे ॥ ८॥ अर्थ-बातज अभिभ्यन्द में अरण्ड की अर्थ-चौसठ तोले पानी में चार तोले
| जड़, कटेग, लाला सहजना और विल्वादि दारुहलदी को पकावै, जब आठवां भाग शेष
| गण का काथ कुछ गरम २ आंख में टपकाना रहै तब उतार कर छानले, इस कार्य में !
हित है, नेत्रवाला, तगर, कंजा की बेल, शहत मिलाकर परिषेक करने से सब प्रकार
गुलर इनकी छाल को जल और बकरी के के कुपित नेत्र शांत होजाते हैं ।
दूध में पकावै, इसका अश्चोतन करने से नत्र पीड़ा पर सहजने का रस ॥
नेत्र पीड़ा शांत होजाती है, मजीठ, हलदी, वातपित्तकफसन्निपातजां नेत्रयोर्वहुविधामपि व्ययम् ।
| लाख, किशमिश, दोनों प्रकार की मुलहटी शीघ्रमेव जयति प्रयोजितः
और कमल इनके काढ़े में शर्करा मिलाकर शिग्रपल्लवरसः समाक्षिकः ॥ ९॥ ठंडा करके आंखों में डाले तो रक्तपित्त भि.
अर्थ केवल सहजने के पत्तों के रस में व्यन्द जाता रहता है। शहत मिलाकर प्रयोग करने से बातज, रक्तपित्ताभिष्यन्द की औषध ॥ पित्तज, कफज वा त्रिदोषज सब प्रकार की | कसेरुयष्टयाहारजस्तांतवे शिथिलं स्थितम् नेत्र पीडा जाती रहती है।
अप्सुदिव्यासु निहितं हितं स्पंदेऽस्रपित्तजे नेत्ररोग पर सक्त पिण्डिका ॥ __अर्थ--रक्तपित्तामष्यन्द में कसेरू और तरुणमुरुबूकपत्र
मुलहटी के चूर्ण को पतले वस्त्र में ढीला मूलं च विभिद्यासिद्धमाजे क्षीरे। .
बांधकर वर्षा के जल में भिगो भिगोकर वाताभियंदरुज सद्योविनिहति सक्तपंडिका चोष्णा ।
आंख में निचोडना चाहिये । अर्थ- अरंड की कोपल और जड़ को
दाहादिनाशक रोग ॥ कूटकर बकरी के दूध में सिद्ध करके नेत्रों |
पुंड्यष्टीनिशामूप्लुिता स्तन्ये सशर्करे। : में लगाबै इससे बातज अविष्यन्द शीघ्र
छागदुग्धेऽथवा दाहरुग्रागाश्रुमिवर्तमी१.५
____ अर्थ- श्वेतकाल, मुलहटी, हलदी इन जाता रहता है, अथवा दोषादिके अनुसार अरण्डकेजड़ और पत्तोंकी पिण्डी गरम कर
को पीसकर पोटली वनःकर स्त्री वा बकरी के बांध देवे।
के शर्करायुक्त दुग्ध में भिगो देवै, इसको वातज अभिष्यन्द में आश्चोतन || |
बार बार आंख में निचोड़ने से दाह, वेदना, आश्चोतनंमारुतो क्याथोबिल्वादिर्भिहितः।
ललाई और आंसुओं का गिरना बन्द होकोष्णः सहरंडजटावृहतीमधुशिनभिः ११ जाता है। हीबेरवक्रशाङ्गेष्टोदुंबरत्यक्षु साधितम् । पित्तादिनाशक प्रयोग। सांभसा पयसाजेन शूलाश्चोतनमुत्तमम् । श्वेतरोभ्रं समधुकं घृतभृष्टं सुचूर्णितम् ।। मजिष्ठारजनालाक्षाद्राक्षाद्विमधुकोत्पलैः। । वस्त्रस्थं स्तन्यमृदितं पित्तरक्ताभिघातजित्
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