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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८०६) अष्टांगहृदय । भ०१५ - प्राग्रपमें कर्तव्य । . चूर्णावगुंठन ॥ प्राग्रूप एव स्यंदेषु तीक्ष्णगंडूषनावनम् । सितमरिचभागमैकं चतुर्मनोड्छकारयेदुपवासं च कोपादन्यत्र वातजात् ॥ द्विरष्टशावरकम् । ___ अर्थ-वातज अभियन्द के अतिरिक्त संचूर्ण्य वस्त्रबद्ध प्रफुपितमात्रेऽवगुंठनं भेने अन्य अभिष्यदों में रोगका पूर्वरूप उपस्थित अर्थ- नेत्र के प्रकुपित होते ही सहेजने होते ही तीक्ष्ण गंडप, तीक्ष्ण नस्य और का बीज एक भाग, मनसिल चार भाग, उपवास कराना चाहिये। और लोध १६ भाग, इन सब द्रव्यों को _दाहशान्तिमें विडालादिकारण । अच्छी तरह पीसकर और पतले वस्त्रमें दाहोपदेहरागाश्रुशोफशांत्यै विडाल कम् । बांधकर उससे नेत्रको ढकना चाहिये । कुर्यात्सर्वत्र पलामरिचस्वर्णगैरिकैः ॥ अन्य चूर्ण ।। सरसांजनयष्टयानतचंदनसैंधवैः। आरण्याश्छगणरसे पटावबद्धाः सैंधव नागरं तार्य भृष्टं मंडन सर्पिषः ।। सुस्विन्नानखवितुपीकृताःकुलत्थाः। घातजे घृतभृष्टं वा योज्यं शबरदेशजम् । तच्चूर्ण सकृदवचूर्णनानिशीथे मांसीपनककाकोलीयष्टयाः पित्तरक्तयोः॥ नेत्राणांविधमति सद्य एव कोपम् ॥ मनोहाफलिनीक्षौद्रेः कफे सर्वस्तु सर्वजे।। अर्थ-बन कुलथी को पोटली में बांधकर । अर्थ - दाह, लिहसावट, ललाई, आंसू. / गोवर के रस में भिगोकर उसको नखों से सूजन, इनकी शांति के लिये विडालक करना | छीलकर साफ करले, फिर इसको आधीगत चाहिये । सब प्रकार के अभिष्यंदा में तेज- के समय पीसकर अवणित करने से पात, इलायची, कालीमिरच, स्वर्णगेरू, नेत्र कोप जाता रहता है । र सौत, मलहटी, तगर, चंदन, सेंधानमक, नेत्र में औषधधारण ॥ इन सबका विडालक लेप करै । वातज । घोषाभयातुत्थकयष्टिरोधेअभिष्यन्द में घृतमंड में भूना हुआ सेंधा भृती ससूक्ष्मैः श्लथवस्त्रबद्धैः। नमक, सौंठ और रसौत अथवा घी में भुना ताम्रस्थधान्याम्लनिमग्रमूर्तिहुई सावरलोध का प्रयोग करना चाहिये ।। रति जयत्यक्षिणि नैकरूपाम् ॥ ७ ॥ अर्थ-कडयी तोरई, हरड, नीलाथोथा, रक्तपित्तज अभिष्यंदमें जटामांसी, पदमाख, मुलहटी, लोध इन सब द्रव्यों को महीन पीस काकोली, और मुलहटी का लेप करना कर पतले कपड़े में वांधे और तांबे के पात्र चाहिये कफज अमिष्यन्द में मनसिल,प्रियंगु में कांजी भरकर उस में उस पोटली को और शहत का लेप करें । और सन्निपातज डवोदे और इसको आंख में निचोड़ने से अभिष्यन्द में ऊपर कही हुई संपूर्ण औषों अनेक प्रकार की यंत्रणा दूर होजाती है । को मिलाकर विडालक करना चाहिये । पक्षम सर्व दोषों में परिषेक ।। को छोडकर जो लेप सब जगह किया जाता पोडशभिः सलिलपलैः है उसे विडालक कहते हैं । पलं तथैकं कटंकटयोः सिद्धम् । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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