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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ('६ ) www. kobatirth.org अष्टांगहृदये । दन्तधावन विधि अर्कन्यग्रोधखदिरकरञ्जककुभादिकम् ॥ प्रातर्भुक्त्वा च मृद्वग्रं कषायकटुतिक्तकम् २ भक्षहन्तवनं दन्तमांसान्यबाधयन् ॥ पीछे आक-बढ - खैर - करंजा - कौह आदि वृक्षकी दांतन प्रतिदिन प्रातःकाल करै । दांतन करने से पहिले उसके अग्रभाग को दांतोंसे चत्राकर बहुत नर्म कूंबी बनाले जिससे दांतों की जड और मसूड़े में किसी प्रकार का कष्ट न पहुंचे | दांतनका स्वाद कसेला, कडवा और तीखा होना चाहिये जिस से मुखकी विरसता जातीरहे । दन्तधावन निषेध | नायादमिथु श्वास का सज्वरार्दिती |३ तृष्णास्यपाकनेत्रशिरःकर्णामयी च तत् ॥ जिसको अजीर्ण, वमन, श्वास, कास, ज्वर, तृषा, मुखपाक, हृद्रोग, शिरके रोग, कर्णरोग हैं। वह मनुष्य दंतधावन न करै । नेत्रों में सुकी विधि । सौवीरञ्जनं नित्यं हितमक्ष्णोस्ततो भजेत् ४ पीछे प्रतिदिन सुरमाका अंजन नेत्रों में आजता है क्योंकि यह अजन नेत्रों के लिये हितकारी होता है । रसौत आंजने का विधान | चक्षुस्तेजोमयं तस्य विशेषात् श्लेष्मणो भयम् योजयेत् सतरात्रे ऽस्मात्त्रात्र गार्थे र साञ्जनम् अर्थ - नेत्र तेजोमय होते हैं अर्थात् इनमें अग्निका स्वरूप होता है इसलिये कफका भय अधिक रहता है इसीसे नेत्रों में से पानी निकाल नेके लिये प्रत्येक सातवीं रातको रसौत आं. तर है ( दारुली काथमें बकरीका दूध पकाले इसीसे रसौत बनती है ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नस्यादिकर्म | ततो नावनगण्डूषधूमताम्बूलभाग्भवेत् ॥ अर्थ - तदनन्तर नावन ( सूंघने योग्य द्रव्य सूचना ) गंडूप ( कुल्ले आदि करना) धूम ( हुक्का आदि पीना ) और तांबूल भक्षण करै ( इन सबका विस्तारपूर्वक वर्णन आगे लिखा जायगा ) | तांबूल के अयोग्य मनुष्य । ताम्बूलं क्षतपित्तास्ररूक्षोत्कुपितचक्षुषाम् ६ विषमूच्छी मदार्तानामपथ्यं शोषिणामपि ॥ अर्थ - क्षयी, रक्तपित्त, रूक्ष, उत्कुपित चक्षु (नेत्रों का दूखना ), विषभक्षण, मु. च्छ, मद ( शराव पीना ), राजयक्ष्मा इन रो गों से पीडित मनुष्य को पान खाना उचित नहीं हैं । अभ्यंग विधि | अभ्यङ्गमाचरेन्नित्यं स जराश्रमवाता | ७ || दृष्टिप्रसादपुष्ट्यायुः स्वप्नत्वक्त्वा कृत् शिरःश्रवणपादेषु तं विशेषेण शीलयेत् ॥ ८ ॥ अर्थ मनुष्यको उचित है कि प्रतिदिन अभ्यंग अर्थात् तैलमर्दन करतार है क्योंकि इससे बुढापा, थकावट तथा वातरोग नष्ट होजाते हैं दृष्टि निर्मल बनीरहती है शरीर पुष्ट रहता है आयु बढती है निद्रा सुखपूर्वक आती है, त्वचा सुन्दर और दृढ होजाती है । परन्तु इस तैलका प्रयोग सिर, कान, और पैर में विशेषता से करता है । । अभ्यंग का निषेध | वयऽभ्यङ्गः कफग्रस्तकृत संशुद्धयजीर्गभिः अर्थ- जो मनुष्य कफ से ग्रस्त है, अथवा वमनविरेचन ( जुल्ला ) देकर शुद्ध किया For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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