SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ. ७ सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । (७७) विरुद्ध सेवन के योग्य शरीर । परिणाम में अहित ही करते है गुण नहीं द्रव्यस्तैरेववा पूर्व शरीरस्याऽभिसंस्कृतिः। करते । यदि इन अहित कामों को चौथाई ___ अर्थ-अथवा विरुद्ध द्रव्य सेवन के पहिले २ छोडने में शरीर को कष्ट प्रतीत होता हो विपरीत गुण वाले द्रव्यों का सेवन करके तो पोडशांस कर करके छोडे । शरीर को विरुद्ध आहार सेवन के योग्यबना जो अपथ्य सेवन का अभ्यास होगया है लेवै । ऐसा करने से विरुद्ध अन्नादि के जैसे अपथ्य सेवनके त्यागने की विधि कही सेवन करने से भी रोग उत्पन्न नहीं हो सकते है उसी तरह धीरे धीरे एक एक दो दो हैं. जैसे पित्त कफ नाशक शहत और हरड तीन तनि दिनका अंतर देकर पथ्य सेवन आदि का जो पहिले ही अच्छी रीति से सेवन | का अभ्यास करै । यदि अभ्यस्त कुपथ्य का कर रक्खा हो तो उसके शरीर में पितकक परित्याग और अनभ्यस्त पथ्य का सेवन एक कारी द्रव्यों का सेवन कुछ भी अनिष्ट नहीं। साथ किया जायगा तो अनेक प्रकार के कर सकता है। विकार उत्पन्न होजायगे इस लिये इसकी विरुद्ध भोजन के योग्य । सुगम विधि यह है कि प्रथम अभ्यस्त व्यायामस्निग्धप्तिाग्निवयःस्थवलशालिनाम्॥ कुपथ्य का एक चतुर्थाश त्यागदे और अनविरोध्यपिनपीडायै सात्म्यमल्पंच भोजनम्। भ्यस्त पथ्यका एक चतुर्थाश सेवन करे इस ___ अर्थ-व्यायाम ( कसरत ) करने वाले तरह एक दो दिन करता रहे फिर यह साको, स्निग्ध देह वाले को, दीप्ताग्निवालेको, रम्य होनेपर अभ्यस्त कुपथ्यका आधा भाग बलवान् को, विरुद्ध भोजन पीड़ा नहीं कर | त्याग कर उसके बदले में आधा अनभ्यस्त सकता है अथवा जिसने विरुद्ध भोजन करने पथ्य सेवन कर इसी तरह दो दो तीन तीन का नित्य अभ्यास कर रकवा हो वा जो वारका अंतर देकर कुपथ्य का सर्वथा त्याग थोड़ा भोजन करता हो उसको विरुद्ध भोजन करके सुपथ्य सेवन का अभ्यास कर लेना कुछ नहीं कर सकता है। चाहिये। सहसा पथ्यापथ्यके त्यागका फल । पथ्यापथ्य की सेवनत्याग विधि । | अपथ्यमपि हि त्यक्तं शीलितंपथ्यमेववा।४८॥ पादेनापथ्यमभ्यस्तं पादपादेन वात्यजेत्४७ सात्म्यासात्म्यविकारायजायतेसहसाऽन्यथा। निषेवेत हितं तद्वदेकद्वित्र्यंतरीकृतम्। अर्थ-ऊपर कहे हुए क्रम पर लक्ष्य अर्थ--अहित अन्न पान अथवा लंघन, । दिये बिना जो सहसा सात्म्य और अपथ्य प्लबन, जागरण वा शयनादि अपथ्य का को त्याग देतेहैं उनके साम्यजनित विकार अभ्यास होगया हो तो चौथाई २ कर के होजाते हैं इसी तरह असात्म्य सुपथ्य का छोडदे क्यों कि इनका फल अच्छा नहीं है। सहसा सेवन करनेसे असात्म्यजनित विकार और यदि ये शरीरोचित हो गये हों तो भी होजातहैं । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy