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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म०४० उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । शरीरक्षयरक्षार्थ वाजीकरणमुच्यते ॥५॥ | अपि लालाविलमुखं पदयाहादकारक। अर्थ-जो अल्पसत्ववाले हैं, जो सांसारिक | अपत्यं तुल्यता केन दर्शनस्पर्शनादिषुः९ क्लेशों से पीडित हैं, और जो कामी हैं, किं पुनर्यद्यशोधर्ममानधीकुलवर्धनम ११ उनकी शरीररक्षा के निमित्त वाजीकरण | अर्थ-संतान चलने में बार बार गिर करना चाहिये । पडने वाली, तोतली बाणी वाली, धूल में ___ व्यवायकाल । लिपटे हुए अंग वाली तथा मुख से लार कल्पस्योदनवयसो वाजीकरणसेविनः | आदि टपकने वाली इन गुणों से युक्त होने सर्वेष्वृतुष्वहरहर्यवायो न निवार्यते ॥६ | पर भी हृदय में अल्हादोत्पादक होती हैं । अर्थ-जो समर्थ, युवावस्था में भरपूर, | ऐसी संतान के संसार में दर्शन स्पर्शनादि और निरंतर वाजीकरण औषधों का सेवन विषयों में किस पदार्थ की तुलना हो सक्ती है करता रहता है उसको सव ऋतुओंमें अहर्निश अर्थात् उक्त गुणविशिष्ट संतान भी सांसास्त्रीसंगमका निषेध नहीं है। रिक सब पदार्थों से तुलनीय नहीं हो स्निग्धको निरूहणादि । सकती है जिसके द्वारा यश धर्म, मान, मच्छस्निग्धविशुद्धानांनिरूहान्सानुवासनान घृत तैलरसारशकराक्षांद्रसंयुतान् ॥ ७॥ स्त्री और कुल की वृद्धि होती है । उसके योगविद्योजयेत्पूर्व क्षीरमांसरसाशिनम्। | साथ समानता करने के योग्य' संसार में ततोवाजीकरान्योगानशुक्रापत्यविवर्धनान् | कौनसा पदार्थ है। - ___ अर्थ-जिसको वाजीकरण करना हो बाजीकरण के योग्य देह ।। स्निग्ध और विशुद्ध करके प्रथम घी, तेल, शुद्धकाये यथाशक्ति वृष्ययोगान् प्रयोजयेत् मांसरस, दूध, शर्करा और मधुसंयुक्त निरू- अर्थ-शरीर को संशोधित कर के जठराग्नि हण और अनुवासन देना चाहिये । और | के बल के अनुसार आगे आने वाले दूध तथा मांसरसका पथ्य देखें । तत्पश्चात् संपूर्ण वृष्ययोगों का प्रयोग करना चाहिये । योगवित् वैद्य शुक्र और अपत्यवर्द्धक सब बाजीकरण प्रयोग । बाजीकरण योगों का प्रयोग करे। शरेश्चकुशकाशानां विदार्या वीरणस्य च अपत्यहीन की निंदा। मुलानि कंटकार्याश्च जीवकर्षभको बलाम अच्छायः पूतिकुसुमः फलेन रहितो द्रुमः मेदे वेदे च काकोल्यौ शूर्पपण्यौ शतावरीम् यथैकश्वैकशाबश्च निरपत्यस्तथा नरः अश्वगंधामतिबलामात्मगुप्तां पुनर्नवाम् । | वीरां पयस्यांजीवंतीमार्द्धरामांत्रिकंटकम् अर्थ- जो मनुष्य संतानरहित होता है मधुकं शालिपर्णी च भागांत्रिपलिकान् पृथक वह छायाहीन, फलपुष्प रहित और एक माषाणामाढकं चैतद् द्विद्रोणे साधयेदपाम् शाखा वाले वृक्ष की तरह निंदित होता है । रसेनाटकशेषेण पचेत्तेन घृताढकम् । । . अपत्यलाभ का महत्व दत्वा विदारीधात्रीक्षुरसानामाढकाढकम् । स्खलद्गमनमव्यक्तवचनं धूलिधूसरम्। धृताच्चतुर्गुणं क्षीरं पेष्याणीमानि चावपेत्। १२३ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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