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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० २३ सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत (१९३) अर्थ-मुखलेप अंगुली का चौथाई, ति- | आधे श्लोक में कहे हुए एक एक लेप का हाई वा आधे भाग के समान करना उचित प्रयोग करे जैसे ( १ ) हेमन्तऋतु में बेर है । यह जब तक गीला रहै तभी तक रह- का गूदा, अडूसा की जड, लोध और सने दे क्योंकि सूखने पर त्वचा को दूषित फेद सरसों का लेप उचित है । (२) कर देता है । दूर करने के समय इसे गीला शिशिरमें कटेरी की जड, काले तिल, दारुकरले पीछे तेल आदि लगावै । मुखलेप हलदी, दालचीनी, और निस्तुष जौ (३) वाले मनुष्य को उचित है कि दिन में सौ- | वसंत में कशा की जड, चंदन, खस, सिना, अधिक बोलना, अग्नि और धूपका रस, सोंफ और चांवल । ( ४ ) ग्रीष्म में सेवन,शोक और क्रोध इनसब का परित्याग कुमुद, उत्पल, कल्हार, दूध, मुलहटी और कर देवै । चंदन, (५) वर्षा में कृष्णागुरु, तिल, मुखलेप के अयोग्यरोग। उसीर, जटामांसी, तगर और पद्माख (६) न योज्यः पीनलेऽजीर्ण दत्तनस्ये हनुग्रहे। शरद में तालीसपत्र, भद्रपुस्तक, पुंडरीक, अरोचके जागरिते | मुलहटी, कांस तगर और अगर इन का ___ अर्थ-पीनस, अजीर्ण, दत्तनस्य (जिसको नस्य दिया गया हो ), हनुग्रह, अरुचि मुखलेप करना चाहिये । और जागरण के अंत में मुखलेप करना मुखालेप का फल । उचित नहीं है। मुखालेपनीलानां दृढं भवति दर्शनम् । सुयोजित मुखलेप के गुण । बन्दनं चापरिम्लानं श्लक्ष्णं तामरसापमम् । __अर्थ-मुख लेपन करने वाले मनुष्य की सच हंति सुयोजितः ॥१७॥ अकालपलितव्यंगवलीतिमिरनीलिकाः।। दृष्टि दृढ होजाती है और उसका मुख ____ अर्थ- विधिपूर्वक मखलेप करने से । बिकसित कमल के समान कोमल होजाकेशों का कुसमय पकना, व्यंग, वली, ति- ता है । मिरं रोग और नीलिका जाते रहते हैं। सिर में तेल के चार प्रकार | ." ऋतुपरता से छः लेप । अगसेकपिचवो बस्तिश्चेति चतुर्विधम्। कोलमज्जावृषान्मूलं शावरं गौरसपाः १८ मधलम् सिंहीमूलंतिला:कृष्णादा-त्वनिस्तुवायत्रा बहुगुणं तद्विधादुत्तरोत्तरम् ॥ २३ ॥ दर्भमूलहिमोशीरशिरीषमिशितंडुलाः१९॥ अर्थ-मस्तक में चार प्रकार से तेल कुमुदोत्पलकहारदूर्वामधुकचन्दनम्। दया जाताहै यथा, अभ्यंग, परिषेक, पिचु कालीयकतिलोशीरमांसीलगरपद्मकम् २०॥ तालीसगुंद्रापुंहाहयष्टीकाशनतागुरुः ।। और यस्ति, ये उत्तरोत्तर अधिक गुणवाले इत्यर्धाधोदिता लेपा हेमंतादिषु षट् स्मृताः। हैं अर्थात अभ्यंग से परिषेक, परिषेक से अर्थ-हेमन्तादि छः ऋतुओं में क्रम से आधे | पिचु, पिचुसे वस्ति गुणों में अधिक है। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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