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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१९४) अष्टांगहृदये। अ० २२. अभ्यंगादि का प्रयोग। | ऊपरसे वस्त्र की वेणी लपेट दे और फिर तत्राऽभ्यंगः प्रयोक्तव्योरौश्यकंडूमलादिषु ।। उरदों का लेप करदे । अरूंषिकाशिरस्तोददाहपाकव्रणेषुतु॥२४॥ पीछे का कर्तव्य कर्म । परिषेकःपिचुः केशशातस्फुटनधूपने । । ततोयथाव्याधि श्रृत स्नेह कोष्णं निषेचयेत्। नेषस्तंभेच बस्तिस्तु प्रसुप्त्यर्दितजागरे २५। ऊर्व केशभुवोयाद्व्यंगुलम् धारयेचतम् ॥ नासाऽऽस्यशोषेतिमिरेशिरोरोगेच दारुणे आवक्त्रनासिकोत्क्लेदात् दशाऽष्टीअर्थ-इनमें से अभ्यंग का प्रयोग मस्त चलादिषु। क की रूक्षता, खुजली और मलादि में क- | | मात्रासहस्राणि अरुजे त्वेकम्रना चाहिये । परिषेक का प्रयोग सिर की स्कंधादि मर्दयेत् ॥ ३०॥ मुक्तस्नेहस्य परमं सप्ताहं तस्य सेवनम् । कुंसियां, शिरस्तोद ( सुई चुभने की सी ____अर्थ-फिर व्याधि के उपयोगी कुछ पीडा), दाह, पाक और व्रण में करना गरम पका हुआ स्नेह चर्म पद के छेद चाहिये । पिचु ( रुई तेल में भिगोकर ल. द्वारा केशभूमि के ऊपर दो अंगुल की ऊंगाना ) का प्रयोग केशपात, केश की भू चाई तक भरदे और जब तक मुख और मिका फटना, धुंए निकलने की सी वेदना और नेत्रस्तंभ में करै तथा प्रसुप्ति, अर्दित, नासिका द्वारा स्राव न होने लगे तब तक | इस तेल को मस्तक पर धारण करै । वा. निद्रानाश, नासिकाशोष, तिमिररोग और तज रोग में इसे दस सहस्र मात्रा दारुण शिरोरोग में वस्ति का प्रयोग करना काल तक, पित्तरोग में आठ सहस्र मात्रा चाहिये। काल तक, कफजरोग में छः सहस्र मात्रा शिरोदस्ति की विधि। काल तक और स्वस्थावस्थामें एक सहस्र विधिस्तस्य निषण्णस्य पीठे जानुसमे मृदौ । मात्रा काल तक धारण करें | शिरोवास्तको शुद्धाक्तास्वन्नदेहस्यदिनांते गव्यमाहिषम् । दर करके कन्धों और प्रीवादि में मर्दन करें द्वादशांगुलविस्तीर्ण चर्मपट्टे शिरः समम् ॥ शिरोविस्त के सेवन काल की परमा माकर्णबंधनस्थानं ललाटे वस्त्रयष्टिते।। चैलवेणिकया वध्या माषकल्केन लेपयेत् ॥ वधि सात दिन की है। .. अर्थ-दिन के अंत में वमन विरेचनादि कर्णपूरण । | धारयेत्पूरणं कर्णे कर्णमूलं विमर्दयन् ॥ ३१॥ द्वारा शुद्ध,तैलादि द्वारा अभ्यक्त,स्वेदादिद्वारा रुजः स्यान्मार्दवं यावन्मात्राशतमवेदने । स्वेदित व्यक्ति को जानु तक ऊंचे आसन | अर्थ-कान में तेल भरके उस समय पर जिस पर कोमल विछौने विछे हों बैठा तक भरा रहने दे जब तक दर्द में कमी देबै और फिर उसके ललाट पर वस्त्र बांध न हो और कानों की जड़ को धीरे धीरे देवै तथा उसके ऊपर के भाग में बारह | हाथ से मर्दन करता रहे । स्वस्थावस्था में अंगुल लंबा, मस्तक के समान चौग गौ सौ मात्रा पर्यन्त कानों में स्नेह धारण भेंस का चमडा कान तक बांधकर करै । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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