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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८५८) अष्टांगहृदय । अ० २४ सूर्यावर्त की चिकित्सा । | का स्वेद, प्रलेप और नस्यादि तथा उपपर्यावर्ते तु तस्मिस्तु लिरयापहरेदसक । वास हितकारी हैं । सन्निपात में वातादि अर्थ-सूर्यावर्त. शिरोरोग में भी इसी | दोषों की मिली हुई चिकित्सा करनी चाहिये तरह से चिकित्सा करना चाहिये । इस | कृमिशिरोरोग का उपाय | रोग में फस्द द्वारा रुधिर निकालना कृमिजे शोणितं नस्यं तेन मूर्छति जंतवः । उचित है। मत्ताः शोणितगंधेन निर्याति घ्राणवक्त्रयोः पित्तज शिरोभिताप का उपाय ।। सुतीक्ष्णनस्यधूमाभ्यां फुर्यानिहरणं ततः । । अर्थ--कृमिज शिरोरोग में रुधिर की शिरोऽभितापे पित्तोत्थे निग्धस्य ब्यधयेलिराम् ॥ ११ ॥ नस्य देना चाहिये।क्योंकि रुधिर की गंध से शीताः शिरोमुखालेपसेकशोधनयस्तयः । सब कीडे मूर्छित और मत्त होकर मुख जीवनीय शृते क्षीरसर्पिषी पाननस्ययोः । और नाक द्वारा निकल पड़ते हैं। पीछे __ अर्थ-पित्तन शिरोरोग में स्नेहके प्रयोग अत्यन्त तीक्ष्ण द्रव्यों की नस्य और धुंए भोगी कोस्निग्ध करके फस्द खोलना का प्रयोग करने से बचे हुए कीडों को चाहिये । तथा मस्तक और मुख पर शीतल भी बाहर निकाल देना चाहिये । लेप और शीतल परिषेक करना उचित है। नस्यविधि । इसमें शोधन वस्ति, तथा जीवनीय गण के विडंगस्वर्जिकादंतीहिंगुगोमूत्रसाधितम् । साथ दूध और घृत को पकाकर इस दूध कटुनिगुदीपीलुतैल नस्यं पृथक् पृथक् । वा घी को पान और नस्य द्वारा व्यवहार अर्थ--बायविडंग, सज्जीखार, दंती, में लावे । । हींग और गोमूत्र इनके साथ सरसों का रक्तजशिरोरोग का उपाय। तेल, नीमका तेल, गोंदी का तेल, अथवा फर्तव्यं रक्तजेऽप्येतत् प्रत्याख्याय च शंखके पीलु का तेल पकाकर उसकी नस्य देवै । अर्थ-रक्तज शिरोरोग में तथा शंखक इनमें से हर एक की नस्य हितकारी है । में ऐसी ही रीति से चिकित्सा करनी कृमिनाशक योजना। चाहिये । शंखक रोग की चिकित्सा केवल | अजामूत्रद्रुतंनस्येकृमिजित् कृमिजित्त्परम् ईश्वर के भरोसे पर करनी चाहिये । अर्थ-वायविडंग को बकरी के मूत्र में कमजनियरोग की चिकित्सा पीसकर नस्य देना चाहिये ! यह कृमिजानित श्लेष्माभितापर्जीणाज्यानहितः कटकर्वमेत रोग की प्रधान औषध है। स्वेदप्रलेपनस्याद्या रूक्षतीक्ष्णोष्णभेषजैः । नस्यद्रव्यों का धुआं। शस्यते चोपवासोऽत्र निचये मिश्रमाचरेत पूतिमत्स्ययुतैः कुर्याद धूमं मावनभेषजैः । अर्थ-कफज शिरोरोग में मस्तक पर | अर्थ-कृमिज शिरोरोग में नस्योपयोगी पुराना घी मलकर कटु द्रव्य द्वारा वमन करावे। द्रव्यों के साथ सड़ी हुई मछली मिलाकर इसमें रूक्ष, तीक्ष्ण और उष्णवीर्य औषधों । धूआं देना चाहिये। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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