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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ०१७ उत्तरस्थान भाषांटीकासमेत । ( ८१३) . से वर्म के भीतर के भाग को दाग देना पादशिराओं की नेत्रोंसे संलग्नता । चाहिये । द्वे पादमध्ये पृथुसन्निवशे - स्वस्थनेत्र में सेवनविधि । शिरे गते ते वहुधा च नेत्रे। चतुर्नवतिरित्यक्ष्णोतुलक्षणसाधनैः।। ताम्रक्षणोद्वर्तनलेपनादीन् परस्परमसंकीर्णः कात्स्न्येन गदिता गदा । पादप्रयुक्तान्नयनं नयंति ॥ ६५॥ मलोष्णसंघट्टनपीडनायेसर्वदा च निषेवेत स्वस्थोऽपि नयनप्रियः स्ता क्षयंते नयनानि दुष्टाः। पुराणयवगोधूमशालिषष्टिककोद्रवान् ।। अर्थ-दोनों पांवों में दो मोटी सिरा मुगादीन्कफपित्तनानभूरिसार्प परिप्लुतान् शाकं चैवविधमांसं जांगलं दाडिमं सिताम होती हैं, जो वहुतसी शाखा प्रशाखाओं में सैंधवं त्रिफलां द्राक्षां वारि पाने चनाभसम् विभक्त होती हुई नेत्रों तक फैलीहुई हैं । भातपत्रं पत्राणं विधिवदोषशोधनम् ॥ तैलादि म्रक्षण, उद्वर्तन और प्रलेपादि कोई __ अर्थ - नेत्ररोगों के ९४ हेतु,लक्षण और | भी दबा जो पांवमें लगाई जाती है, वह इन उनके साधन संपूर्ण रूपसे वर्णन किये सिराओं के संयोग से नेत्रों में पहुंच जातीहै गये हैं। नेत्ररोगी को रोग से छूटने पर भी मल पदार्थ, उष्णता, संघटन, और पीडनानेत्रों पर हित रखने की इच्छा से सदा बडी दि द्वारा वह सिरा दुष्ट होकर नेत्रकोभी सावधानी से रहना चाहिये । पुराने नौ, दूषित करदेती है। गेहूँ, शालीचांवल, साठीचावल, कोदों, उपानहादि सेवन । अत्यन्त घृतप्लुत कफपित्तनाशक मूंग आदि, भजेत्सदा दृष्टिहितानि तस्मादू कफपित्तनाशक शाक, जांगल मांस,अनार, उपानभ्यंजनधावनानि ॥ ६६ ॥ चीनी, सेंधानमक, त्रिफला, दाख, आंतरीक्ष अर्थ-पांवमें लगे हुए दूषित पदार्थों जल, छत्री, जूता, तथा विधिवत दोषशो द्वारा नेत्रभी दूषित हो जाते हैं. इसलिये धन अर्थात् दोषानुसार विरेचन । इन सबका नेत्रों की रक्षाके निमित्त सदा जूते पहनता निरंतर सेवन करना चाहिये । रहै, तथा दोनों पांवों में तेल लगाना और पांवों का धौना ये काम करना उचित है। वेगसंरोधादिक वर्जन । इति श्री अष्टांगहृयसंहिता भाषाटीपर्जयेद्वेगसंरोधमजीर्णाध्यशनानि च। । शोकक्रोधदिवास्वप्ननिशाजागरणानि च ॥ कान्वितायां उत्तरस्थाने क्षिरोगविदाहि विष्टभकर यहाहारभेषजम् ।। प्रतिषेधोनाम षोडशोऽध्यायः । अर्थ-नेत्ररोग से टूटा हुआ मनुष्य | मलमूत्रादि वेगधारण,अजीर्ण,अध्यशन,शोक सप्तदशोऽध्यायः । क्रोध, दिवानिद्रा, रात्रि जागरण, तथा विदाही | अथाऽतः कर्णरोगविज्ञान यं व्याख्यास्यामः और विष्टंभी आहार, विहार और औषध इन अर्थ-अब हम यहां से कर्णरोग विज्ञासबका परित्याग करदेव । Jनीय नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे । - For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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