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म. २१
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत
(८३५)
अर्थ-तालु की जडमें कफरक्त से मछली तालुशोष के लक्षण । की वस्ति के सदृश कोमल, लंबी और पि- वातपित्तज्वरायासैस्तालुशोषस्तदाह्वयः। च्छिल सूजन पैदा होजाती है. इसे गलशुं.
___अर्थ-वातपित्तज्वर और आयासद्वारा
| जो तालुशोष होता है, उसको तालुशोष रोग भोजन का द्रव्य नासिका में होकर बाहर | कहते हैं । निकल पडता है इसमें कंठरोध, तृषा, खांसी
रोहिणी के लक्षण । और वमन ये उपद्रव उपस्थित होते हैं। जिहवाप्रबंधजाः कंठे दारुणामगिरोधिनः।
'मांसाकुराः शीघ्रचया रोहिणी शीघ्रकारिणी तालुसंहति ॥
___ अर्थ-कंठस्थान में जिहा की जड में तालुमध्ये निरङमांस संहतं तालुसंहतिः ॥ ___ अर्थ-तालु के बीचमें वेदनारहित कठोर
जो कंठके मार्गको रोकनेवाले मांस के अंकुर सूजन होती है, उसे तालुसंहति कहते हैं।
| उपल्न होजाते हैं । उनको रोहिणी कहते हैं। अर्बुद के लक्षण |
ये शीघ्रही बढ जाते हैं और बहुत जल्दी पद्माकृतिस्तालुमध्ये रक्ताच्छ्वयथुरर्बुदम् । प्राणों का नाश करदेते हैं। ___ अर्थ-रक्तके प्रकोप से तालुके बीचमें । वातरोहिणी के लक्षण।। पनके आकार के समान जो सजन होती कंठास्यशोषकद्धातासा हनुश्रोत्ररकरी । है उसे अर्बुद कहते हैं।
। अर्थ-वातजन्य रोहिणी रोगने कंठ और - कच्छप के लक्षण | मुखमें शोष, तथा हनुभाग और कानमें दर्द कच्छपः कच्छपाकारश्चिरवृद्धिः कफादरुक होता है ।
अर्थ-कफके प्रकोप से ताल के बीचमें । पित्तरोहिणी का कर्म । कछुए की आकृति के समान जो वेदना से पित्ताज्ज्वरोषातृण्मोहकंठधूमायनान्विता । रहित सजन होती है उसे कच्छप करते है | क्षिप्रजा क्षिप्रपाकार्तिरागिणी स्पर्शनासहा। यह देरमें बढती है।
अर्थ-पित्त जरोहिणी रोगमें ज्वर, ऊषा, पुप्पुट के लक्षण । तृषा, मोह, तथा कंठमें धुंआंसा घुमडना, कोलाभः श्लेप्ममेदोभ्यां पुष्पुटो नीरुजः स्थिरः ये सब लक्षण प्रकाशित होते हैं, यह शीघ्र ___ अर्थ-जो सूजन कफ और मेद से उ- उत्पन्न होकर शीघू पकनेवाली, अत्यन्त स्पन्न होकर बेरकी आकृति के समान वेदना लाल और मार्शयो र सह सकनेवाली होतीहै । रहित और स्थिर होती है, उसे पुप्पुट कहते हैं कफजगंहिणी का कर्म ।
तालुपाक के लक्षण । कफेन पिच्छिला पांडुः पिन पाकः पाकाख्यः पूयास्रावी महारुजः ___अर्थ-कफजरोहिणी रोगमें पिच्छिल ता
अर्थ-दबित पित्तके कारण तालुके पक- | और पांडवर्णता होती है । जानेपर राध निकलने लगती है और घार |
रक्तजरोहिणी का कर्म । वेदना होती है।
भसजा स्फोटकाचिता।
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