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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । नियमागप्रजानां च गर्भिणीनांच पूजितम् । | जगद्विषण्णं तं दृष्ट्वातेनाऽसौ विषसंशितः एतत्परं च वालानां प्रहघ्नं देहवर्धनम् ६७ / हुंकृतो ब्रह्मणा मूर्ती ततः स्थावरजंगमे । __अर्थ -मजीठ, कूठ, त्रिफला, शर्करा, वच सोध्यतिष्ठनिज रूपमुज्झित्वा पंचनात्मकम् हलदी, दारुहलदी, मुलहटी, मेदा, अजवायन, ___अर्थ-जन अमृत उत्पन्न करने के लिये कुटकी, दूधी, हींग, काकोली, असगंध और देवता और असुरों ने मिलकर समुद्रको मया सितावर प्रत्येक एक तोला लेकर कल्क करले था तब अमृत के उत्पन्न होने से पहिले एक एक प्रस्थ घी और चार प्रस्थ दूध मिलाकर भयंकर पुरुष उत्पन्न हुआ जिसका तेज बडा इन सब को पाकोक्तविधि से पकावै । यह फल- प्रचंड था उसके चार डाढ और हरे केश घत सब प्रकार के योनि और शुक्रदोषों में थे तथा आंखें अग्निकी शिखा के समान प्रशस्त है । यह घृत आयुवर्द्धक, पौष्टिक, जलती थीं। इस भयंकर पुरुष को देखकर मेधावर्द्धक, और अत्यन्त उत्तम पुंसवन संपूर्ण जगत विषण्ण होगया इस लिये इसका औषध है । इस घी को पुष्य नक्षत्रमें पीनेसे नाम विष हो गया। यह बंचनस्वभाव पुरुष निश्चय संतान होती है, तथा जिन स्त्रियाँ । ब्रह्मा की हुंकार से अपने स्वरूप को त्याग की संतान होकर मरजाती है और जो गर्भ. | कर स्थावर और जंगमात्मक दो मूर्तिवाला वती हैं, उनके लिये यह घृत परमोत्तम है । हो गया । यह घृत बालकों के ग्रहों को दूर करने तथा स्थावर विषका वर्णन । उनकी देहको बढाने में परमोत्तम है। स्थिरमत्युल्वणं वीर्ये यत्कंदेषु प्रतिष्ठितम् । इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटी- कालकूटेंद्रवत्साख्यशृंगीहालाहलादिकम् । कान्वितायां उत्तरस्थाने गुह्यरोगम अर्थ-जो विष कंद में रहता है तथा तिषेधोनाम चतुस्विंशोऽध्यायः।। वीर्य में अति उग्र है वह स्थावर विष होता है स्थावर विष कालकूट, वत्सनाभ, शृंगी और हालाहलादि नाम से पुकारा जाता है। , पंचत्रिंशोऽध्यायः। जंगमविष का वर्णन । सर्पलूतादिदष्ट्रासु पारुणं जंगमं विषम् । । अर्थ-जो विष सर्प वा मकडी आदि अथाऽतो विषप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः।। जानवरों की डाढों में रहता है वह जंगमअर्थ-अब हम यहांसे विषप्रतिषेध नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे । विष कहलाता है यहां दंष्ट्रा केवल उपलक्षण विषकी उत्पत्ति । मात्र है । जंगमविष नख, सींग और मूत्रा | दिक में भी रहता है। मथ्यमाने जलनिधावमृतार्थ सुरासुरैः। दिक म जातः प्रागस्तोत्पत्तेः पुरुषो घोरदर्शनः।। विष और गर का अन्तर । दीप्ततेजाश्चतुर्दष्टो हरितकेशोऽनलेक्षणः ।। स्थावरं जगमं चेति विषं प्रोक्तमकृत्रिमम् ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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