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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९२.) अष्टांगहृदप । प्र. ३४ विशदता कारक चूर्ण। अर्थ-कफदूषित योनियों में कटु द्रव्यों कासीसंत्रिफलाकांक्षीसाम्रजयस्थिधातुकी से युक्त तथा गोमूत्र से युक्त वस्ति देना पैच्छिल्ये क्षौद्रसंयुक्तश्चूर्णो वैशद्यकारका हित है, तथा पित्त दूषित योनि में तेल और अर्थ-हीराकसीस, त्रिफला, मुलताना- कांजी मिलीहई वस्ति देनी चाहिये । . मिट्टी, आम की गुठली, जामन की गुठली, सन्निपातज योनिरोग । और धाय के फूल इन सब द्रव्यों के चूर्ण सन्निपातसमुत्थायाः कर्म साधारण हितम में शहत मिलाकर सेवन करने से योनि की । अर्थ-सन्निपात से दूषित योनि में पिच्छिलता दूर हो जाती है । वातादि दोषों में कही हुई साधारण चिकिदुगंधादियुक्तयोनि का उपाय। सा करनी चाहिये । पालाशधातकी जंबूसमंगामोचसर्जजः।। शुद्धयोनि में गर्भाधान । दुर्गधे पिच्छिले क्लेदस्तंभनश्चूर्ण इष्यते ।। आरग्वधदिवर्गस्य कषायः परिषेचनम् ।। ' एवं यानिषु शुद्धासु गर्भ विदंति योषितः । | अदुष्टे प्राकृत वीजे जीवोपक्रमणे सति । अर्थ-ढाक के फूल, धाय के फूल, अर्थ-ऊपर कही हुई चिकित्साओं द्वारा जामन, मजीठ, मोचरस और राल इनका योनि के शुद्ध होजाने पर तथा दोष रहित दुर्गन्धि, पिच्छिलता और क्लेद में स्तम्भन गर्भोत्पादन के लिये प्राकृत बीज डालने से कर्ता है । तथा अरग्वधादि गणोक्त द्रव्यों स्त्री गर्भ को धारण करलेती है। का साथ परिषेचन में हित है। दुष्टशुक्र की परीक्षा । - मृदुताकारक प्रयोग। पंचकर्मविशुद्धस्य पुरुषस्याऽपि चेद्रियम् ।। स्तब्धानां कर्कशानां च कार्य मार्दवकारकम् परीक्ष्य वर्णैर्दोषाणां दुष्टं तदघ्नैरुपाचरेत् । धारणं वेसवारस्य कसरापायसस्य च ॥ अर्थ-वातादि दोषों के द्वारा शुक्र के अर्थ-स्तब्ध और कर्कश योनियों में भेदकी परीक्षा करके प्रथमवमन बिरेचनादि वेमवार, कृसरा वा पायस रखने से उन में पांच कर्म से पुरुष को संशोधित करके उस मृदुलता होजाती है। .. दुगंधितयोनि में काढा। दोष को दूर करनेवाली औषधों का प्रयोग करै । दुर्गधानां कषायः स्यात्तलं वा कल्क पय वा योनिशुक्र दोष पर घृत । चूर्णो वा सवेंगधानां पूतिगंधापकर्षणः॥ अर्थ -सुगंधित द्रव्यों का क्वाथ, कल्क, | मंजिष्ठाकुष्ठतगरत्रिफलाशर्कराबचाः॥ द्वे निशे मधुकं भेदा दीप्यकः कटुरोहिणी। चर्ग वा उनसे सिद्ध किया हुआ तेल लगाने पयस्याहिंगुकाकोलीशीजिगंधाशतावरीः ॥ से योनि की दुर्गन्धि जाती रहती है। पिष्टवाक्षाशैर्घतप्रस्थं पचेत्क्षीराश्चतुर्गुणम् . कफदुष्टयोनि में वस्ति । | योनिशुक्रप्रदोषेषु तत्सर्वेषु च शस्यते । श्लेष्मलानां कटुप्रायाःसम्बापस्तयो हिताः आयुष्यं पौष्टिकं मेध्यं धन्यं पुंसवन परम् पित्ते समधुकधीराः पाते तैलाम्लसंयुताः फलसपिरिति ख्यातं पुष्पे पीतं फलाययत् For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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