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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२५) अष्टांगहृदये। इनमें से तुत्थदग्ध के लक्षण ये हैं कि अर्थ-दुर्दग्ध स्थान में शीतक्रिया त्वचा का रंग बदल जाता है, वेदना अधिक और उष्णक्रिया पर्याय रूप से करनी होती है, और फुसियां नहीं निकलती हैं। चाहिये अर्थात् प्रथम शीतवीर्य और फिर दुर्दग्ध स्थान में फुसियां, तीव्रदाह और उष्णचीर्य औषधोंका प्रयोग करना उचित है। तीब्रवेदना होती है। सम्यक् दग्ध की चिकित्सा । ___ अतिदाह में मांस लटक पडता है, सिरा सम्यग्दग्धे तुगाक्षीरिप्लक्षचंदनगैरिकैः। संकुचित होजाती हैं, दाह, धूपन (धूआं लिंपेत्साज्यामृतैरूवं पित्तविद्रधिपत्क्रिया॥ सा घुमडना ) और वेदना होती है । सि ___ अर्थ-सम्यग्दग्ध में प्रथम वंशलोचन, राओं का नाश होजाता है, तृषा, मूर्छा, पाकड, रक्तचंदन, गेरू और गिलोय इनको व्रणमें गंभीरता और मृत्यु ये सब उपद्रव धीमें सानकर लेप करे, पीछे पित्तकी विद्रधि उपस्थित होते हैं। के समान चिकित्सा करनी चाहिये । ___ सम्यक् दग्ध के लक्षण ऊपर कहे गये अतिदग्ध की चिकित्सा । हैं उन्हीं से समझलेना चाहिये, पुनरुक्तिकी अतिदग्धे द्रुतकुर्यात्सर्वपित्तविसर्पवत् । आवश्यकता नहीं है । अग्नि से थोडे जलने ____ अर्थ-अति दग्धमें बहुत ही शीघ्रतापूर्वक का नाम तुत्थदग्ध है। भीतर और बाहर पित्त विसर्प के सदृश तुत्थ दग्ध की चिकित्सा। चिकित्सा करनी चाहिये । तुत्थस्थाऽग्निप्रतपनं कार्यमुष्णं च भेषजम । स्नेह दग्ध की चिकित्सा । स्त्यानेऽने वेदनात्यर्थं विलीने मंदता रुजः। स्नेहदग्धे भृशतरं रूक्ष तत्र तु योजयेत् ॥५२॥ ___ अर्थ-तुत्थदग्ध स्थान को अग्नि से | अर्थ-गरम घी तेल आदि स्नेहपदार्थ तपाना उचितहै और उष्णवीर्य औषधों का के द्वारा दग्ध होजाने पर अत्यन्त रूक्षप्रयोग करना चाहिये ( जैसे रोटी पकाते क्रिया करना उचित है । तु शब्द के प्रयोग समय रोटी की भाफ से हाथ जल जाय तो से केवल अत्यन्त रूक्ष औषधों का ही उसी समय अग्निसे सेक देना चाहिये ) | प्रयोग करे यह नहीं किन्तु देह, देश, साइसका कारण यह है कि दग्ध स्थान का म्यादि का विचार करके यथावत् स्निग्ध रुधिर न निकलकर गाढा होजाता है और क्रिया भी करना उचित है । उस में वेदना होने लगती है और विलीन । सूत्रस्थान की समाप्ति । होने पर दर्द कम होजाता है इसलिये रक्त | समाप्यतेस्थानमिदं हृदयस्य रहस्यवत् । को विलीन अर्थात पिघलाने के लिये उष्ण अत्रार्थाःसूात्रताःसूक्ष्माःप्रतन्यते हि सर्वतः॥ क्रिया करना आवश्यकीय है। ___अर्थ-अष्टांगहृदयका रहस्यवत् अर्थात् दुर्दग्ध की चिकित्सा। अत्यन्त गुप्तपदार्थों से युक्त यह सूत्रस्थान दुर्दग्धेशीतमुष्णं च युज्यादादौततोहिमम्॥ | समाप्त हुआ है । यह स्थान रहस्यवत् क्यों For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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