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(४७४)
अष्टांगहृदय ।
म.
मैथुन, भारी, असाग्य और विदाही अन्न, मनको प्रसन्न करनेवाले विषय विष्णुकृत तथा और भी ज्वर के उत्पन्न करनेवाले । भयंकर ज्वरको भी नष्ट करदेते हैं फिर हेतुओं का त्याग करदेना चाहिये । खरनाद अपचारज ज्वर का तो कहनाही क्या है । ने कहा है कि "पिष्टान्नं हरित शाकं मांसं इतिश्री वाग्भटविरचितायां साहितायां शुष्कं तिलान्दधि । प्राभ्यानूपोदकाजावि मथुरानिवासि श्रीकृष्णलाल कृत गव्यसूकरमाहिषम् । मांसं शुष्काणि शाकानि भाषाटीकायां चिकित्सितस्थाने सर्वमेवत्यजेज्ज्वरी ।
ज्वरचिकित्सितं नाम प्रथमो ज्वरमुक्तको सर्वअन्नका निषेध ।
ऽध्यायः ॥ १॥ न बिज्वरोऽपि सहसासर्वानीनोभवेत्तथा ॥ निवृत्तोऽपि ज्वरः शीघ्रं व्यापादयति दुर्बलम् ___ अर्थ-ज्वरमुक्त होनेपर भी मनुष्यको द्वितीयोऽध्यायः। सहसा सब प्रकारके अन्न खाना न चाहिये क्योंकि गया हुआ ज्वर भी दुर्बल मनुष्य | अथाऽतोरक्तपित्तचिकित्सितं व्याख्यास्यामः पर शीघ्र आक्रमण करता है।
अर्थ-अब हम यहां से रक्तपित्त चिज्वरीको उचित औषध । कित्सित नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। सधः प्राणहरो यस्मात्तस्मात्तस्य विशेषतः
ऊर्ध्वगामी रकपित्तका उपचार । तस्यां तस्यामवस्थायां
"ऊर्ध्वगं बलिनो वेगमेकदोषानुगं नवम् । तत्तत्कुर्याद्भिषग्जितम् ॥ १७४ ॥
रक्तपित्त सुखे काले साधयेभिरुपद्रवम् ।। अर्थ-क्योंकि ज्वर तत्काल प्राणों का
अर्थ-बलवान पुरुष के (स्त्री के नहीं) नाश करनेवाला है, इसलिये अन्यरोगियों
ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त जो वेगरहित हो, एक की अपेक्षा ज्वररोगी की विशेषरूपसे साम,
दोषानुगामी हो, नवीन हो, हेमंत या शिपच्यमान, पक, जीर्ण, विषम चिरनिबृत्ता.
शिरऋतु में उत्पन्न हुआ हो, विकृतविज्ञानीदि अवस्थाओं में लंघन, स्वेदन, यवागू,
यअध्याय में कहे हुए उपद्रवों से रहित हो पाचनादि द्वारा औषध करै ।
वह साध्य होने से चिकित्सा के योग्य औषधों को ज्वरघ्नत्व ।
होता है। ओषधयो मणयश्च सुमंत्राः साधुगुराद्विजदैवतपूजाः।
___ अधोगामी रक्तपित्त का यापन । प्रीतिकरा मनसो विषयाश्च अधोग यापयेद्रक्तं यच्च दोषद्वयानुगम् । मन्त्यपि विष्णुकृतं ज्वरमुग्रम् “ ॥ १७५॥ अर्थ-अधोमार्ग से प्रवृत्त होनेवाला रक्त
अर्थ-औषध, मणि, सुमंत्र, तथा साधु | पित्त जो दो दोषों से युक्त हो वह याप्य गुरु, द्विज और देवताओं का पूजन, और | होता है।
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